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भेद में छिपा अभेद
है किन्तु इसके मूल स्वरूप को बताने वाला साहित्य बहुत कम है। इसके प्रशिक्षकों की संख्या काफी है। अनेक भावातीत ध्यान के प्रशिक्षक प्रेक्षाध्यान के शिविरों में भी महीनों तक रहे हैं। उनसे बात करने पर पता चला-भावातीत ध्यान में एक मंत्र का प्रयोग कराया जाता है। यह बीस मिनट का प्रयोग होता है। मन्त्र की एक निश्चित विधि है। उसका जप करते-करते व्यक्ति भावातीत हो जाता है, भावना से अतीत होकर गहरी एकाग्रता में चला जाता है। भावातीत ध्यान के संदर्भ में इसके अतिरिक्त कुछ भी जानने को नहीं मिला। कठिन है शून्य को जानना
मन्त्र जप के प्रयोग का नाम रखा गया है भावातीत ध्यान। भावातीत को निर्विकल्प ध्यान भी कहा जा सकता है। प्रश्न हो सकता है-क्या जप द्वारा यह संभव है? जप केवल उच्चारण ही नहीं है। जब हम ध्यान की तरफ जप को ले जाते हैं तो उसे विराम देने की जरूरत होती है। हम उच्चारण से जप शुरू करें और उसे विराम देते चले जाएं। इस स्थिति में हो सकता है-एक नमस्कार मन्त्र गिनने में एक मिनट लग जाए, दो मिनट लग जाए। जितना विराम देंगे, अन्तराल बढ़ता चला जायेगा। सबसे महत्त्वपूर्ण होता है शून्य रहना। खाली रहने वाली बात समझ में आए तब जप ठीक होता है। भरे हुए को जानना कठिन नहीं है। कठिन है शून्य को जानना। हम श्वास को भी देखते हैं। श्वास भीतर गया, वह बाहर आने वाला है। श्वास आने और जाने के बीच के अन्तराल को (शून्य को) पकड़ें। यह मर्म की बात है। भावातीत चेतना : समाधि
ध्यान के हर क्षण में शून्य को पकड़ना बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक क्रिया विश्राम लेती है। उस विश्राम के क्षण को पकड़ना महत्त्व की बात होती है। ध्यान और जप के सन्दर्भ में भी यही बात है। जप का महत्त्वपूर्ण क्षण होता है खाली रहना। हम जितना अन्तराल देना सीखेंगे उतना ही भावातीत ध्यान सधता चला जायेगा। व्यक्ति भावातीत बनता है अन्तराल के कारण। जैसे-जैसे जप आगे बढ़ेगा, अन्तराल आगे बढ़ता चला जाएगा। एक बार मन्त्र जपा और पांच सैकण्ड बिल्कुल निर्विकल्प
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