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प्रेक्षाध्यान और निर्विचार ध्यान
इस शताब्दी में ध्यान पर विचार करने वाले अनेक मनीषी हुए हैं। अनेक प्रकार के ध्यान विकसित हुए हैं। उन सबमें किसी को गंभीर और एक स्थितप्रज्ञ जैसा कहा जा सके तो श्री कृष्णमूर्ति का नाम लिया जा सकता है। कृष्णमूर्ति ने इस विषय को जितनी गहराई से पकड़ा है, उतनी गहराई तक बहुत कम लोग पहुंचे हैं। ध्यान पद्धतियों के कुछ संस्कर्ता एक प्रकार से प्रचार-प्रसार में रस लेने वाले और राजनीति के परिपार्श्व में परिक्रमा करने वाले लोग रहे हैं। कृष्णमूर्ति ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने गहराई का स्पर्श किया है, भीतर गहरे में पैठ की है। कृष्णमूर्ति का मंतव्य
श्री कृष्णमूर्ति का मानना था- मन सब जगह व्याप्त है। जहां-जहां मन की व्याप्ति है वहां न ध्यान हो सकता है, न धर्म हो सकता है। मन आत्मा के बारे में सोच रहा है, ईश्वर के बारे में सोच रहा है या शराब के बारे में सोच रहा है। श्री कृष्णमूर्ति की दृष्टि में इसमें कोई फर्क नहीं है। जहां मन का खेल है, वहां कछ भी हो सकता है। जहां मन से परे चले जाएं, मन का खेल खेलना बन्द कर दें, वहां सत्य उपलब्ध होगा, सत्य की अनुभूति होगी और वह वास्तविक होगी।
अतीत, वर्तमान और भविष्य - सारा मन का खेल है। हम कालातीत हुए बिना मन के खेलों से परे नहीं जा सकते। जब तक काल से बंधे रहेंगे, तब तक मन के खेल खेलते रहेंगे। अतीत की स्मृति मन का खेल है। वर्तमान का चिन्तन और भविष्य की कल्पना- सब कुछ मन का खेल ही खेला जा रहा है। मन से परे होने, मनोतीत अवस्था में जाने का अर्थ है कालातीत अवस्था में जाना। जहां मन समाप्त होता है वहां कोई काल नहीं है। मन नहीं है तो स्मृति नहीं होगी। अतीत से संबंध छूट जाएगा। मन नहीं है तो चिन्तन भी नहीं होगा। हम वर्तमान की पकड़ से
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