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________________ ११४ भेद में छिपा अभेद ले लिया और एक विकृत पद्धति का निर्माण कर दिया गया। कुछ लोग यह भी कहते हैं-सब कुछ विपश्यना से ले लिया, केवल नाम बदल कर 'प्रेक्षा' कर दिया। प्रेक्षा में सब-कुछ वही है, जो विपश्यना में है। एक तथाकथित भगवान् ने भी यही कहा-सब-कुछ हमसे लिया, केवल नया नामकरण कर अपने नाम से प्रचारित कर दिया। यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। दृष्टिकोण एकांगी नहीं है __ हमारा दृष्टिकोण एकांगी नहीं है। एकांगी दृष्टिकोण से किसी बात को पकड़ा नहीं जा सकता। हमारा दृष्टिकोण रहा-जैसे स्वास्थ्य के लिए सन्तुलित भोजन होना चाहिए वैसे ही साधना के प्रयोगों में भी सन्तुलन होना चाहिए। शरीर, प्राण और मन को साधने वाले प्रयोग तथा चेतना को विकसित करने वाले प्रयोग-दोनों का सन्तुलन होना चाहिए। प्रेक्षाध्यान हमारे इसी दृष्टिकोण की निष्पत्ति है। यह आश्चर्य है कि हम किसी की आलोचना में नहीं जाते फिर भी पता नहीं, कुछ वीतरागता की बात करने वाले साधक प्रेक्षाध्यान की आलोचना में क्यों उलझे हुए हैं? विकसमान पद्धति सच तो यह है – श्वास प्रेक्षा और शरीर प्रेक्षा के प्रयोग बहुत लम्बे समय से चल रहे हैं। गोयनकाजी पहली बार बैंगलोर में मिले थे। उससे पूर्व कई ध्यान शिविर भी आयोजित हो चुके थे। हम विकासशील पद्धति में विश्वास करते हैं। प्रारंभ में हम आसन-प्राणायाम, कायोत्सर्ग, श्वास प्रेक्षा और शरीर प्रेक्षा के प्रयोग करते थे किन्तु किसी पद्धति का विधिवत् रूप से निर्धारण नहीं हो पाया था। जयपुर में इस पद्धति का नामकरण प्रेक्षाध्यान' किया गया। उसके बाद इसमें चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का प्रयोग जुड़ा। कालान्तर में लेश्याध्यान के प्रयोग आविष्कृत हुए। अनुप्रेक्षा के प्रयोग भी बाद में निर्धारित किए गए। बौद्धों में अनुप्रेक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। बौद्ध दर्शन में दस अनुस्मृतियां हैं पर उसमें बारह अनुप्रेक्षाएं व्यवस्थित नहीं हैं। इस प्रकार प्रेक्षाध्यान के सारे प्रयोग स्वतंत्र बन जाते हैं। उनका विकास भी स्वतंत्र ही हआ हैं। विकास के अनके चरणों को स्पर्श करते हुए प्रेक्षाध्यान सर्वांगीण पद्धति के रूप में प्रतिष्ठित हुई है और आज भी वह विकसमान बनी हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003085
Book TitleBhed me Chipa Abhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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