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भेद में छिपा अभेद
मुक्त हो जाएंगे। मन नहीं है तो भविष्य की कल्पना भी नहीं होगी। हम भविष्य की कारा में बंदी नहीं रहेंगे। ध्यान की पराकाष्ठा
यह एक दृष्टिकोण है। इसमें काफी गहरे जाने का यत्न किया गया है। यह आत्मा की स्थिति है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जब व्यक्ति आत्मानुभूति के क्षण में चला जाता है, आत्मा तक चला जाता है, तब न चिन्तन रहता है, न स्मृति और न कल्पना होती है। जो व्यक्ति वीतरागी या ज्ञानी बन गया, वह कभी स्मृति, कल्पना और चिन्तन नहीं करता। यह स्थिति साक्षात्कार की है। जहां दर्शन या साक्षात्कार हो जाए, सत्य के साथ सीधा सम्पर्क हो जाए, वहां तीनों काल समाप्त हो जाते हैं। केवली के लिए अतीत और भविष्य क्या होगा? कैवल्य कालातीत स्थिति की उपलब्धि है। विचार की भूमिका
निःसंदेह यह ध्यान की पराकाष्ठा की स्थिति है। हम इस पर प्रेक्षा ध्यान की दृष्टि से विचार करें। हम अनेकान्त की दृष्टि से विचार करते हैं इसलिए किसी पक्ष को गलत नहीं कह सकते किन्तु उसे एक पक्ष ही मान सकते हैं। ध्यान का एक पहल यह हो सकता है, किन्त उसका दूसरा पहलू नहीं है, ऐसा नहीं माना जा सकता। साक्षात्कार की भूमिका में व्यक्ति सीधा चला जाए, यह सबके लिए संभव नहीं है। शक्ति और क्षयोपशम का तारतम्य इतना है कि विचार की भमिका भी एक नहीं बन पाती। कृष्णमूर्ति ने सब-कुछ विचार की भूमिका से देखा। हम भावना की भूमिका को भी छोड़ नहीं सकते। विचार को पैदा कौन करता है? विचार अपने आप पैदा नहीं होता। भाव और मन - दोनों जुड़े हुए हैं। भाव प्रभावित होगा तो मन प्रभावित हो जाएगा। भाव और मन
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो मन एक क्षण पहले अच्छा सोचता है, वह दूसरे क्षण में बुरा भी सोचने लग जाता है। इस स्थिति में मन का अस्तित्व कहां रहा? हवा बहती है। यदि हम कहें- हवा ठण्डी है तो सापेक्ष सत्य होगा। थोड़ी-सी गर्मी आएगी, हवा गर्म हो जाएगी। यदि
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