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भेद में छिपा अभेद
दूध गाढ़ा बन गया, दही बन गया, यह है ध्यान। दूध है चंचलता, जामन है धारणा और दही है ध्यान। चैतन्य केन्द्र का ध्यान धारणा से प्रारम्भ होता है। हम बीस मिनट, आधा घंटा या उससे अधिक उस पर टिके रहें तो वह ध्यान बन जाएगा। भेद : प्रथम कारण __ यह मान लेना चाहिए-प्रेक्षा और विपश्यना में भेद का आदि-बिन्दु है
चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा। यह भेद का प्रथम कारण है। हम कारण पर विमर्श करें। बौद्ध दर्शन में आत्मा कोई तत्व नहीं है। उसमें आत्मा को देखने की बात नहीं है। जो लोग आत्म-दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें विपश्यना से वह प्राप्य नहीं हो सकता। विपश्यना से आत्म-दर्शन की आशा पूरी नहीं होगी। जो आत्म-दर्शन करना चाहते हैं, उनके लिए चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा करना जरूरी है। चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का अर्थ है-शरीर के जिन-जिम स्थानों पर चेतना सघन रूप में केन्द्रित है, उन-उन स्थानों पर ध्यान करना। यदि हम चैतन्य केन्द्रों पर लंबे समय तक ध्यान करेंगे तो चेतना की अनुभूति जल्दी होगी। मर्म स्थान : चैतन्य केन्द्र
आयुर्वेद के अनुसार शरीर में बहुत-से ऐसे मर्मस्थान हैं, जहां चोट लगते ही आदमी मर जाए। कण्ठ एक मर्मस्थान है। यदि उस पर गंभीर चोट लगे तो आदमी तत्काल मर जाए। सुश्रुत संहिता में ऐसे सौ से अधिक मर्मस्थान बतलाए गए हैं। इन मर्मस्थानों को चैतन्य केन्द्र कहा जा सकता है। एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेशर की पद्धति में सात सौ बिन्दु (Points) खोज लिए गए हैं। चेतना के ये सारे केन्द्र हमारे शरीर में हैं। यह समुद्र या नदी के पानी की गहराई है। इन केन्द्रों पर ध्यान करेंगे तो चेतना को पकड़ने बहुत मदद मिलेगी। यह चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का प्रयोग उसी दर्शन या व्यक्ति को मान्य हो सकता है, जो स्पष्टतः आत्म-दर्शन की भावना रखता है। प्रेक्षाध्यान : मौलिक अवदान
प्रेक्षाध्यान पद्धति में अनेक स्वतन्त्र प्रयोग भी विकसित किए गए हैं। लेश्याध्यान, अनिमेष प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा, एकाग्रता और संकल्प-शक्ति के
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