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प्रेक्षा और विपश्यना
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शरीर को देखना। जहां तक हमने जाना है, इन दो प्रयोगों के अलावा विपश्यना पद्धति में तीसरा प्रयोग नहीं चल रहा है। सन्दर्भ : चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा
प्रेक्षा और विपश्यना में मूलभूत रेखा खींचने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा। यह प्रयोग भी विपश्यना में नहीं है और शायद इसलिए नहीं है कि उसमें किसी एक स्थान पर टिकना पसंद नहीं किया जाता। उसमें पूरे शरीर को देखते चले जाते हैं, कहीं रुकते नहीं हैं। यदि हम शरीर को देखते चले जाएंगे तो धारणा होगी पर ध्यान नहीं होगा। हम इसे इस भाषा में समझ-बछड़ा आंगन में उत्पात मचा रहा है। उसे पकड़कर एक खूटे से बांध दिया तो वह ज्यादा कूद-फांद नहीं कर पाएगा। इसका नाम है धारणा। वह बछड़ा आसपास में ही चक्कर लगाएगा जब वह थक जाएगा, तब वहीं बैठ जाएगा। यह है ध्यान। ध्यान का मतलब है-चित्त को एक स्थान पर टिका देना। मन को एक स्थान पर टिकाया और मन लम्बे समय तक उसी विषय पर टिका रहा, मन शान्त हो गया, यही है ध्यान। ध्यान का अंग है धारणा
हमारे दृष्टिकोण में श्वास प्रेक्षा और शरीर प्रेक्षा-दोनों धारणा के प्रकार हैं। ध्यान शुरू होता है चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा से। किसी एक चैतन्य केन्द्र पर ध्यान शुरू किया, यह धारणा है। आधा घंटा तक उसी केन्द्र पर चित्त केन्द्रित बना रहा तो वह ध्यान हो गया। जब हम ध्यान करते हैं तब प्रारम्भ में धारणा होती है। एक बिन्दु पर धारणा होते-होते चित्त उस पर एकाग्र बन जाता है, तब ध्यान हो जाता है। यद्यपि ध्यान का ही एक अंग है धारणा। जब धारणा पुष्ट होती है तब वह ध्यान में परिणत हो जाती है। एक सूत्र है - धारणा को बारह से गुणा करो, वह ध्यान बन जाएगा। ध्यान को बारह से गुणा करो, वह समाधि बन जाएगी। दृष्टान्त की भाषा
पहले हम धारणा करें, एक स्थान पर चित्त को केन्द्रित करें। जैसे-जैसे वह सघन होगी, ध्यान घटित होता चला जाएगा। दृष्टान्त की भाषा है-दध है, उसमें जामन दिया, उसमें समय लगता है। जामन दिया गया,
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