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पेक्षा और विपश्यना
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आत्मा का ज्ञान। जैन दर्शन आत्मवादी है, आत्मा को स्वीकार करता है। जब तक आत्मा का ज्ञान नहीं होता, प्रेक्षा का प्रारंभ ही नहीं होता।
जैन दर्शन में कोरा अनित्यवाद मान्य नहीं है, कोरा दुःखवाद मान्य नहीं है और अनात्मवाद सर्वथा ही मान्य नहीं है। इन तीन आधारों से प्रेक्षा और विपश्यना के मल दार्शनिक आधार की भिन्नता स्पष्ट है। प्रेक्षाध्यान : प्राणतत्त्व
प्रेक्षाध्यान की पद्धति कायोत्सर्ग पर आधारित है। प्रेक्षाध्यान का पहला बिन्दु है कायोत्सर्ग - शरीर को त्यागना और उसका अन्तिम बिन्दु है कायोत्सर्ग-काया का निरोध, काया का उत्सर्ग। इसका तात्पर्य है. भेद-विज्ञान। 'आत्मा अलग है और शरीर अलग है', 'आत्मा अलग है, पुद्गल अलग है', 'मैं आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूँ'-इसकी अनुभूति भेद-विज्ञान है। प्रेक्षाध्यान करने वाले व्यक्ति का लक्ष्यं वहां पहुंचना है जहां पहुंचने पर आत्मा और शरीर का भेद स्पष्ट हो जाए।
जैन दर्शन का दार्शनिक पक्ष और साधना पक्ष आत्मा के आधार पर चलता है। जैन दर्शन का एक कदम भी आत्मा को छोड़कर आगे नहीं बढ़ता। सारा आचारशास्त्र आत्मा पर आधारित है। एक साधक ने श्वास-प्रेक्षा की, श्वास के प्रकंपनों का पता चला। शरीर-प्रेक्षा की, शरीर के प्रकम्पनों का पता चला किन्तु उसे कम्पनों में ही नहीं अटकना है, अकंप की ओर जाना है। इन प्रकम्पनों के बीच एक अप्रकंप है, जो कभी कंपित नहीं होता, उसका साक्षात्कार करना है। यह बात बौद्ध दर्शन-सम्मत नहीं है क्योंकि उसमें आत्मवाद की स्पष्ट अवधारणा नहीं
मौलिक अन्तर
बुद्ध ने कहा – दुःख को मिटाओ, दुःख के हेतु को मिटाओ, आत्मा के झगड़े में मत पड़ो। बद्ध ने दःख को मिटाने का सीधा मार्ग बताया। महावीर का मार्ग कुछ टेढ़ा है। महावीर ने कहा - वर्तमान में जो सामने है, केवल उसी पर मत अटको, मूल तक जाओ। बुद्ध का दर्शन है - अग्र. पर ध्यान केन्द्रित करो। महावीर का दर्शन है - केवल अग्र को मत पकड़ो, मूल तक जाओ, आत्मा तक जाओ। जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन में
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