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भंद में छिपा अभेद
श्वास का प्रयोग विपश्यना में भी है, प्रेक्षा में भी है। अन्तर श्वास का नहीं है, अन्तर है दर्शन की पृष्ठभूमि का, दार्शनिक आधार का। जब तक हम उसके आधार को न समझ लें तब तक केवल प्रयोग के आधार पर समानता और असमानता की बात समझ में नहीं आ पाएगी। प्रेक्षा ध्यान का आधार है जैन दर्शन और विपश्यना का आधार है बौद्ध दर्शन। बौद्ध दर्शन के अनुसार जब अनित्य, दुःख और अनात्म की चेतना प्रकट होती है तब विपश्यना का प्रादुर्भाव होता है। विपश्यना के लिए तीन शर्ते हैं -
नित्य का ज्ञान, दुःख का ज्ञान और अनात्म का ज्ञान। इन तीनों का ज्ञान होने पर विपश्यना प्रगट होती है। बौद्ध दर्शन का सिद्धांत है - क्षणिकवाद। प्रतिक्षण उत्पाद और व्यय हो रहा है। यह विपश्यना का एक मूल आधार है।
विपश्यना का दूसरा आधार है दुःख का ज्ञान। जन्म, बुढ़ापा, रोग और मरण – ये दुःख हैं। यह दुःख का ज्ञान विपश्यना का आधार तत्त्व है। विपश्यना का तीसरा मूल आधार है - अनात्म का ज्ञान।
जब इस त्रिपदी का ज्ञान स्पष्ट होता है तब विपश्यना प्रगट होती है। प्रेक्षा : दार्शनिक आधार .
प्रेक्षा कब होती है? जब नित्यानित्य का ज्ञान होता है तब प्रेक्षा होती है। उत्पाद और व्यय को धौव्य से पृथक् नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन की भाषा में जो सत् है वह त्रयात्मक है। नित्य और अनित्य – दोनों का ज्ञान, यह प्रेक्षा का पहला आधार है।
जैन दर्शन में केवल दाखवाद का स्वीकार नहीं है। जितना स्थान दुःख का है उतना ही सुख का स्थान है। भगवान् महावीर ने जन्म, मरण, बढ़ापा और रोग - इन चारों दःखों को स्वीकार किया है, साथ-साथ सख को भी स्वीकार किया है। जैन दर्शन एकान्त दुःखवादी नहीं है। पौद्र्गालक सुख भी सुख है। साधना-काल में भी सुख की अनुभूति होती है इसलिए सुखवाद भी मान्य है।
प्रेक्षा ध्यान का एक उद्देश्य है - निर्मोह होना। उसका एक उद्देश्य अज्ञान से मुक्त होना भी है। ज्ञानावरण से मुक्त होना है, सर्वज्ञ होना है। सर्वज्ञता भी जैन दर्शन में मान्य है। प्रेक्षा ध्यान का मूल आधार है -
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