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भेद में छिपा अभेदः
एकान्त स्थान में स्थिर आसन में बैठें। प्राणायाम की साधना कर दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थापित कर ध्यान और समाधि का अभ्यास किया जाए।
पद पर ध्यान करना पदस्थ ध्यान है। 'अधुवे' इत्यादि पदों पर ध्यान किया जाए अथवा समभाव में स्थिर होकर अपने में बीती हुई दुःखद घटनाओं का चिंतन किया जाए।
आवागमन से शन्य स्थान में शरीर और मन को स्थिर बना ध्यान किया जाए। वह दिन या वेला कब आएगी, जब दुःख पैदा करने वाले मानसिक द्वन्द्व समाप्त होंगे।
प्रातःकाल, मध्याह्न अथवा संध्या के समय ध्यान करने से निश्चित ही विषय की उपाधि मिट जाती है।
भोजन और वस्त्र आदि के ममत्व को छेद डाल, कठोर वचन सुनकर क्रोध मत कर, स्तुति में हर्ष और निन्दा में विषाद मत कर, चित्त को धृति में स्थापित कर। प्रेक्षाध्यान और उसका प्राणतत्त्व
आचार्य श्री तुलसी की ध्यान के विषय में एक कृति हैमनोनुशासनम्। उसमें पातंजल योग दर्शन, आचार्य हेमचंद्र के योग-शास्त्र आदि का प्रभाव है किन्तु उस ग्रन्थ में एक नया प्रस्थान है। योग की परिभाषा प्राचीन परिभाषाओं से भिन्न है, जैन साधना की दृष्टि से अधिक उपयोगी है।। मनोनुशासनम् के बाद प्रेक्षाध्यान की पद्धति का विकास हुआ है। वह आचारांग की प्राचीनतम ध्यान परंपरा के अधिक निकट है। इस पद्धति में हठयोग, विज्ञान आदि का भी उपयोग किया गया है किन्तु इसका प्राणतत्त्व आचारांग की प्रणाली है। 2
1. मनोनुशासनम् १/११, १३
मनोवाक्-काय-आनापान-इन्द्रिय-आहाराणां निरोधो योगः। शोधनं च। • 2. प्रेक्षाध्यान : आधार और स्वरूप- (युवाचार्य महाप्रज्ञ)।
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