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यान की विभिन्न धाराएं
बनलाए गए हैं - ध्यान. परमध्यान, शून्य, परमशून्य, कला. परमकला. ज्योति, परमज्योति. बिन्दु, परमविन्दु, नाद, परमनाद, ताग, परमतारा, लय, परमलय, लव, परमलव, मात्रा, परममात्रा, पद, परमपद, सिद्धि, परममिद्धि। प्रस्तत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध है। उसमें एतदविषयक प्राकृत गाथा उद्धृत है। उससे पता चलता है कि यह चौबीस ध्यान की परंपरा ग्रन्थकाल से प्राचीन काल में रही है। यह ग्रन्थ ध्यान की दष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें ध्यान के विविध मार्गों का समाहार है। ध्यान के इन चौबीस मार्गों का प्रयोग जैन परंपरा में कब से प्रारंभ हुआ और कब तक होता रहा - इस बारे में निश्चय पूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। यह विषय अन्वेषणीय है। जपयोग
आनंदघनजी और चिदानंदजी जैसे कुछ योगी संत हुए हैं। उनकी साधना अध्यात्म-चिन्तन, जप, मंत्र और स्वरोदय से प्रभावित रही है।
जैन परंपरा में मंत्र साधना के साथ साथ जपयोग का भी विकास हुआ है। उसका इतिहास लगभग दो हजार वर्ष पुराना है। ध्यान और जयाचार्य
ईसा की अठारहवीं शताब्दी में जयाचार्य ने ध्यान पर कछ लघ ग्रन्थ लखे। पद्धति की दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण हैं।। ध्यान-विधि के संदर्भ में जयाचार्य के कुछ निर्देश ये हैं1. ध्यान विचार पृ. १ श्लोक १ ।
सुन्नकलजोइबिन्दु नादो तारा लओ लवो मत्ता।
पानी परमजुया झाणाई हुति बउवीमा।। 2. आराधना श्लोक (२-६) पृ. ९५
धर आनन एकान्त रोह, प्राणायाम प्रसाधि। भूमध दाट मुथाप मन, मझिय ध्यान नमाधि।। पद पर ध्यान पदस्थ वर, "अधुवे" इत्यादीन। निज जीतक दुख चिनवत, उदासीन आसीन।। अनापात-जन स्थान जई, तन मन स्थिर घर ध्यान। वो दिन बेला कब हुवै, मिटत घंध दुःख-खान।। मध्याहन संध्या पाई. प्रात समय निशि माध। अवश्य नियम कार ने जुझ्या, मिटियै विषय-उपाध।। अन्न अस्त्रादि ममत्वछिन्, कठिन वचन नह कोप। स्तुति हरनै नहि दुमनि वर, धीरपणे चित रोप।।
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