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भेद में छिपा अभेद
व्यापक बना, आज उसी मार्ग को ईसाई धर्म अपनाए हुए है। ईसाई जो कार्य कर रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, वह यही तो है। वे इन तीनों दानों को 'अपना मिशन बनाए हुए हैं-शिक्षा की व्यवस्था, चिकित्सा की व्यवस्था
और आजीविका की व्यवस्था। जहां ये तीनों व्यवस्थाएं होती हैं वहां भय अपने आप मिट जाता है। कहा जा सकता है-आज जो ईसाई धर्म में चल रहा है, वही काम प्राचीन काल में जैन लोगों ने दक्षिण भारत में किया था। जैन धर्म की व्यापकता का कारण भी यही रहा और ईसाई धर्म की व्यापकता का कारण भी यही है। आंकड़ों की भाषा
तत्त्व को जानने वाले लोग बहुत कम होते हैं। ऐसे कितने लोग हैं, जो तत्त्व को गहराई से समझते हैं, तत्त्व को समझकर किसी धर्म को स्वीकार करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की संख्या नगण्य ही कही जा सकती है। आंकड़ों की भाषा है-जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या है एक करोड़ और ईसाई धर्म के अनुयायी हैं एक अरब से भी अधिक। इसका कारण यही हो सकता है-जैन लोगों ने समाज के साथ संपर्क करने वाली बातें भुला दी और कोरा तत्त्वज्ञान को अपना लिया। तत्त्व को समझने वाले लोग कितने होते हैं! कितने लोग तात्त्विक हो सकते हैं! सामान्य आदमी तत्त्व को समझकर किसी धर्म को स्वीकार नहीं करता। सामान्यतः आदमी अपनी श्रद्धा या अच्छी विशेषता के कारण धर्म विशेष के प्रति आकृष्ट होता है। वह सोचता है-क्या मिलेगा इस धर्म से? मुख्य होती है कुछ पाने या मिलने की बात। तत्त्व की बात कुछ और ही होती है। दार्शनिक सोलन
यूनान का एक प्रसिद्ध दार्शनिक हुआ है सोलन। यूनान के बादशाह ने एक विशाल महल बनवाया। वह बहुत भव्य और दार्शनीय था। जो भी आता, उसे देखता, प्रशंसा किए बिना नहीं रहता। बादशाह ने सोचा-सब लोग आते हैं, प्रशंसा के गीत गाते हैं, किन्तु जब तक सोलन प्रशंसा नहीं करता, तब तक कुछ भी नहीं है।
उस व्यक्ति का मूल्य होता है, जो बहुत कम बोलता है। सोलन दार्शनिक था। वह प्रशंसा के मामले में बहत कंजूस था। वह सदा तत्त्व
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