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________________ जैन धर्म और ईसाई धर्म ८७ जैन धर्म : व्यापकता का कारण जो लोग आजीविका कमाने के लिए समर्थ नहीं हैं, उनके लिए आजीविका की व्यवस्था करना, यह है अन्नदान। शिक्षा की व्यवस्था. करना विद्यादान है। यह बहुत व्यापक कार्य जैन लोगों ने किया। विद्वानों ने लिखा है-जब हमने महाराष्ट्र में पढ़ना शुरू किया, तब हमें सबसे पहले पढ़ाया गया-ॐ नमः सिद्धम्। महाराष्ट्र में ही नहीं, परे दक्षिण में जैन गुरु यह काम अपने हाथ में लिए हुए थे। वे महात्मा बने और आज मथेरन बन गए हैं। उन लोगों ने विद्या के पूरे काम को संभाला था। तीसरा था औषधदान। औषधि की व्यवस्था करना, चिकित्सा की व्यवस्था करना औषधदान है। चौथा दान था अभयदान। एक दसरे के प्रति मैत्रीभाव। कोई आतंक नहीं हो, किसी को कोई सताए नहीं। इस दान चतुष्टयी के कारण जैन धर्म जन-धर्म बन गया, लोक-व्यापी बन गया। समाज के साथ एक गहरा तादात्म्य भाव जुड़ गया। दक्षिण में जैन धर्म जैन धर्म की दक्षिण में भाषा, साहित्य, संस्कृति और सभ्यता के विकास में अग्रणी भूमिका रही है। आचार्य श्री दक्षिण यात्रा में मद्रास पधारे। आचार्यवर के स्वागत समारोह का आयोजन किया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अन्नादुरै ने आचार्यवर का स्वागत करते हुए कहा-आचार्य श्री! आपका स्वागत करते हए मझे कोई आश्चर्य नहीं है। मझे इस बात का आश्चर्य है- आपने अपने घर को इतने वर्षों तक संभाला क्यों नहीं। हमारी तमिल भाषा में जितने भी प्रौढ़ काव्य हैं, वे सब जैन आचार्यों के बनाए हुए हैं। आज भी एम.ए. के कोर्स में जितने क्लासिकल काव्य और व्याकरण अनिवार्यतः पढ़ाए जाते हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा निर्मित हैं। जैसे उत्तर भारत में कोई हिन्दी पढ़ने वाला है, वह सूरदास, मीरा, तुलसीदास, कबीर आदि को पढ़े बिना हिन्दी का कोर्स पूरा नहीं कर सकता वैसे ही तमिल और कन्नड़ में जैन आचार्यों के काव्यों और व्याकरणों को पढ़े बिना कोर्स पूरा नहीं होता। व्यापकता का रहस्य हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें। जिस दान चतुष्टयी के कारण जैन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003085
Book TitleBhed me Chipa Abhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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