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भेद में छिपा अभेद
ईसा और जैन धर्म
जब ईसा धर्म की यात्रा में थे, तब वे हिन्दुस्तान में भी आए। कश्मीर में उनका प्रवास रहा। वहां ईसा का बाद्धों से भी काफी संपर्क रहा, जैनों से भी काफी संपर्क रहा और वैदिक लोगों से भी काफी संपर्क रहा। इस तथ्य को बहुत सारे आधारों पर जाना जा सकता है। ईसा के धर्म प्रवर्तन के बाद पहली या दसरी शताब्दी में ईसाई धर्म का एक बड़ा दल केरल (भारत) आया। त्रिवेन्द्रम, आज जो केरल की राजधानी है, जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। आचार्य श्री की केरल यात्रा के दौरान हमने देखा-अनेक मंदिर ऐसे हैं, जहां भीतर दूसरी प्रतिमाएं हैं और बाहर दूसरी। आज भी बाहरी परिसर में पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं, अन्य जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएं स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं। केरल के अनेक विद्वान् मिले, जिन्होंने इस विषय पर व्यापक छानबीन की है, उनका कहना था-पहले ये मंदिर भगवान् पार्श्वनाथ के थे बाद में परिवर्तित हो गए। जैन धर्म के इस प्रमुख केन्द्र में ईसाइयों का जैन श्रमणों के साथ प्रथम मिलन हुआ, ऐसा माना जाता है। उस समय विचारों और कार्यों का काफी आदान-प्रदान हुआ।
दान चतुष्टयी
ईसाई धर्म में सेवा का बहुत स्थान है, प्रेम का बहुत स्थान है। कभी-कभी यह कल्पना उभरती है-यह सेवा की बात ईसाई धर्म के लोगों ने जैनधर्म से तो नहीं सीखी है? अनेक विद्वानों ने एक प्रश्न उपस्थित किया-दक्षिण में जैन धर्म इतना व्यापक कैसे बना? उसकी व्यापकता का कारण क्या रहा? इस प्रश्न की खोज और मीमांसा के बाद विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुंचे-दक्षिण में जैन धर्म के व्यापक होने का कारण है-दान चतुष्टयी। वहां जैनों ने चार प्रकार के दान प्रवर्तित किए
१. अन्नदान २. विद्यादान ३. औषधदान ४. अभयदान इन चारों दानों को मुख्यता देने से जैन धर्म व्यापक बनता चला गया।
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