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जैन धर्म और ईसाई धर्म
८५.
का प्रतिपादन किसी के लिए भी कैसे संभव है ? नय दृष्टि
यह तथ्य है-आज तक किसी ने सत्य का पूरा प्रतिपादन किया नहीं है और भविष्य में भी सत्य का पूरा प्रतिपादन नहीं किया जा सकेगा। इस स्थिति में हम एक बात पकड़ कर अकड़ जाएं, खींचातानी करें, यह कैसी समझदारी होगी? भगवान महावीर ने इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन दिया है-तुम प्रत्येक विचार पर चिन्तन करो और सोचो-यह किस नय की अपेक्षा से सही है। यह मत सोचो कि यह गलत है। गलत कहने से पहले इस बात पर विचार करो-यह किस नय की अपेक्षा से सही हो सकता है। जैन आचार्यों ने इस दृष्टिकोण से अनेक दर्शनों पर विचार किया है। उनके सामने ईसा का दर्शन नहीं रहा, इस्लाम का दर्शन नहीं रहा किन्तु उनके सामने जितने दर्शन थे, उन सब पर उन्होंने नय-दृष्टि से विचार किया। प्रत्येक दर्शन को अपना एक नय माना। सात नय हैं, सात सौ नय भी हो सकते हैं, सात हजार नय भी हो सकते हैं। कोई भी धर्म बाकी नहीं बचेगा। उन सबको मिलाएं तो अखण्ड सत्य सामने आएगा। लक्ष्य है अखण्ड को जानना
हम खण्ड को जानते हैं किन्तु हमारा लक्ष्य होना चाहिए अखण्ड को जानना। जो व्यक्ति खण्ड में उलझ जाता है, उसका व्यक्तित्व भी खण्डित बन जाता है। यह जो समग्रता का दृष्टिकोण है, अनंत धर्म के संग्रह का दृष्टिकोण है, वह तुलनात्मक अध्ययन का दृष्टिकोण है। स्व-समय के साथ पर-समय की जो बात कही जा रही है, उसका यही आधार है। वास्तव में पर-समय कोई है ही नहीं। पूछा गया-जितने धर्म
और जितने विचार हैं क्या उनको मिथ्या मानें? समाधान दिया गया-जो मिथ्या दृष्टिकोण वाला है उसके लिए सम्यक् या मिथ्या-सब कुछ मिथ्या है। जिसका दृष्टिकोण सम्यक् हो गया, उसके लिए सम्यग्श्रुत हो या मिथ्याश्रुत-सब कुछ सम्यक् है। हमारे लिए कोई भी धर्म असत्य नहीं है
और इसी आधार पर तुलनात्मक अध्ययन के क्रमको महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सबका दृष्टिकोण जानें और समझें, यही तुलनात्मक अध्ययन का उद्देश्य है।
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