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जैन धर्म और ईसाई धर्म
दुनिया में जितने विचार हैं, वे सब सापेक्ष हैं। किसी भी विचार को असत्य कहने से पहले पांच बार नहीं, पचास बार सोचना चाहिए। हम जिसे असत्य मान रहे हैं या कह रहे हैं क्या वह सत्य नहीं है? वह सत्य भी हो सकता है। वह विचार भी एक नय है, एक दृष्टिकोण है और एक सचाई है। हम निरपेक्ष भाव से उसका तिरस्कार करें, खण्डन करें तो शायद सत्य के प्रति न्याय नहीं होगा अवाच्य है अखण्ड सत्य
सत्य की मर्यादा है-सब दृष्टिकोणों का समच्चय करें, समाहार और समन्वय करें फिर अखण्ड सत्य की बात करें। हमारी वाणी में शक्ति नहीं है कि वह अखण्ड सत्य का प्रतिपादन कर सके। आज तक कोई भी पुरुष ऐसा पैदा नहीं हुआ, जिसने अखण्ड सत्य का प्रतिपादन किया हो। चाहे वह बड़े से बड़ा अवतार हो, ईसा, बद्ध, महावीर, मौहम्मद साहब, राम या कृष्ण हो। कोई भी अखण्ड सत्य को नहीं बता सका। हमारे पास वाणी की शक्ति सीमित है और उनके पास भी वाणी की शक्ति सीमित थी। ज्ञान असीम हो सकता है पर वाणी किसी की असीम नहीं हो सकती। प्रतिपादन की क्षमता भी असीम नहीं है, जीवन भी किसी का असीम नहीं है। अनंत सत्य को एक छोटे से जीवन में कैसे बताया जा सकता है? एक व्यक्ति चाहे पचास वर्ष का है या सौ वर्ष का अथवा इससे भी अधिक। इतनी सीमित आयु में वह अनंत सत्य को कैसे बता सकता है? एक व्यक्ति प्रतिदिन चौबीस घंटा बोले और सैकड़ों वर्षों तक लगातार बोलता चला जाए तो भी वह सत्य का एक बिन्द जितना हिस्सा ही अभिव्यक्त कर पाएगा। कहना चाहिए-वर्णमाला के एक अक्षर 'अ' का प्रतिपादन भी सैंकड़ों वर्षों में नहीं किया जा सकता। एक अ के अनंत पर्याय हैं। केवल एक अकार का प्रतिपादन भी सैकडों वर्षों में संभव नहीं है तो अनंत सत्य
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