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________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक १. सुषम-सुषमा ४. दुःषम-सुषमा २. सुषमा ५. दुःषमा ३. सुषम-दुःषमा ६. दुःषम-दुःषमा उत्सर्पिणी के छह विभाग इस व्यतिक्रम से होते हैं : १. दुःषम-दुषमा ४. सुषम-दुःषमा २. दुःषमा ५. सुषमा ३. दुःषम-सुषमा ६. सुषम-सुषमा १. सुषम-सुषमा ___ आज हम अवसर्पिणी के पांचवे पर्व-दुःषमा में जी रहे हैं। हमारे युग का जीवन-क्रम सुषम-सुषमा से शुरू होता है । उस समय भूमि स्निग्ध थी। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोज्ञ थे। मिट्टी की मिठास आज की चीनी से अनन्त गुना अधिक थी। कर्मभूमि थी, किन्तु अभी कर्मयुग का प्रवर्तन नहीं हुआ था। पदार्थ अति स्निग्ध थे। इस युग के मनुष्य तीन दिन के अन्तर से अरहर की दाल जितनी-सी वनस्पति खाते और तृप्त हो जाते। खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नहीं थे। विकार बहुत कम थे इसलिए उनका जीवनकाल बहत लंबा होता था। वे तीन पल्य तक जीते थे। अकाल-मृत्यू कभी नहीं होती थी । वातावरण की अत्यन्त अनुकूलता थी। उनका शरीर तीन गाऊ ऊंचा था। वे स्वभाव से शांत और संतुष्ट होते थे। यह चार कोटि-कोटि सागर [काल का काल्पनिक परिमाण] का एकान्त सुखमय पर्व बीत गया। २. सुषमा तीन कोटि-कोटि सागर का दूसरा सुखमय पर्व शुरू हुआ। इसमें भोजन दो दिन के अन्तर से होने लगा। उसकी मात्रा बेर के फल जितनी हो गई। जीवनकाल दो पल्य का हो गया और शरीर की ऊंचाई दो गाऊ की रह गई। इनकी कमी का कारण था भूमि और पदार्थों की स्निग्धता की कमी। ३. सुषम-दुःषमा काल और आगे बढ़ा। तीसरे सुख-दुःखमय पर्व में और कमी आ गई । एक दिन के अन्तर से भोजन होने लगा। उसकी मात्रा आंवला के समान हो गई । जीवन का काल-मान एक पल्य हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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