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________________ जैन परम्परा का इतिहास ४. यह परिवर्तनशील भी है--प्रतिदिन नये-नये रूपों में बदलता रहता है। ५. यह अनादि है, इसलिए किसी महाशक्ति की कृति नहीं है। तत्त्व-मीमांसा के प्रसंग में इन प्रश्नों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। इतिहास खंड में केवल इतना ही प्रासंगिक है कि हमारा जगत् शाश्वत और अशाश्वत का सामंजस्य है। भगवान महावीर ने स्कंदक संन्यासी से कहा था-'स्कंदक ! ऐसा कोई क्षण न था, न है और न होगा जिसमें इस जगत का अस्तित्व न हो।' यह अस्तित्व की दृष्टि से जगत् की शाश्वता का प्रतिपादन है। __ भगवान् ने जमालि से कहा था- 'जमालि ! इस जगत में कालचक्र गतिशील रहता है-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का क्रम चाल रहता है। फलतः जगत् का आंचलिक स्वरूप बदलता रहता है।' यह परिवर्तन की दृष्टि से जगत् की अशाश्वतता का प्रतिपादन है। ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जगत् का परिवर्तनशील रूप ही हमारे लिए उपयोगी है। कालचक्र कालचक्र जागतिक ह्रास और विकास के क्रम का प्रतीक है। काल का पहिया नीचे की ओर जाता है तब भौगोलिक परिस्थिति तथा मानवीय सभ्यता और संस्कृति ह्रासोन्मुखी होती है। काल का 'पहिया जब ऊपर की ओर आता है तब वे विकासोन्मुखी होती हैं। काल की इस ह्रासोन्मुखी गति को अवसर्पिणी और विकासोन्मुखी गति को उत्सर्पिणी कहा जाता है। ___ अवसर्पिणी में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान, आयुष्य, शरीर, सुख आदि पर्यायों की क्रमशः अवनति होती है । उत्सर्पिणी में उक्त पर्यायों की क्रमशः उन्नति होती है। वह अवनति और उन्नति सामूहिक होती है, वैयक्तिक नहीं होती। अवसर्पिणी की चरम सीमा ही उत्सर्पिणी का आरंभ है और उत्सर्पिणी का अन्त अवसर्पिणी का जन्म है । प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के छह-छह विभाग [पर्व] होते हैं। अवसर्पिणी के छह विभाग : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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