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जैन परम्परा का इतिहास
शरीर की ऊंचाई एक गाऊ की हो गई । इस युग की काल - मर्यादा थी — दो कोटि-कोटि सागर । इसके अंतिम चरण में पदार्थों की स्निग्धता में बहुत कमी हुई । सहज नियमन टूटने लगे । तब कृत्रि अवस्था आयी और इसी समय कुलकर-व्यवस्था को जन्म मिला ।
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यह कर्म - युग के शैशव - काल की कहानी है । समाज संगठन अभी नहीं हुआ था । यौगलिक व्यवस्था चल रही थी । एक जोड़ा ही सब कुछ होता था । न कुल था, न वर्ग और न जाति । समाज और राज्य की बात बहुत दूर थी । जनसंख्या कम थी । माता-पिता की मौत से छह माह पहले एक युगल जन्म लेता, वही दम्पति होता । विवाह संस्था का उदय नहीं हुआ था । जीवन की आवश्यकता बहुत सीमित थी । न खेती होती थी, न कपड़ा बनता था और न मकान बनते थे । भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे । शृंगार और आमोद-प्रमोद, विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम नहीं जानता था । न कोई वाहन था और न कोई यात्री | गांव बसे नहीं थे । न कोई स्वामी था और न सेवक । शासक शासित भी नहीं थे । न कोई शोषक था और न कोई शोषित । पति-पत्नी या जन्य-जनक के सिवा सम्बन्ध जैसी कोई वस्तु नहीं थी ।
धर्म और उसके प्रचारक भी नहीं थे । उस समय के लोग सहज धर्म के अधिकारी और शांत स्वभाव वाले थे । चुगली, निंदा, आरोप जैसे मनोभाव जन्मे ही नहीं थे । हीनता और उत्कर्ष की भावनाएं भी उत्पन्न नहीं हुई थीं। लड़ने-झगड़ने की मानसिक ग्रंथियां भी नहीं थीं । वे शस्त्र और शास्त्र दोनों से अनजान थे ।
अब्रह्मचर्य सीमित था | मार-काट और हत्या नहीं होती थी । न संग्रह था, न चोरी और न असत्य । वे सदा सहज आनन्द और शांति में लीन रहते थे ।
कालचक्र का पहला भाग बीता। दूसरा और तीसरा भी लगभग बीत गया ।
सहज समृद्धि का क्रमिक ह्रास होने लगा । भूमि का रस जो चीनी से अनंत गुना मीठा था, वह कम होने लगा । उसके वर्ण, गंध और स्पर्श की श्रेष्ठता भी कम हुई ।
युगल मनुष्यों के शरीर का परिमाण भी घटता गया । तीन, दो और एक दिन के बाद भोजन करने की परंपरा भी टूटने लगी ।
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