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"भगवान् महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा
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परिस्थितिजन्य अपरिपक्व विचार को सच बता रहा है । माथेमाथे का विचार अलग-अलग होता है । कुछेक श्रमणों को जमाली का विचार रूचा, मन को भाया, उस पर श्रद्धा जमी । वे जमाली की शरण में रहे । कुछेक जिन्हें जमाली का विचार नहीं जंचा, उस पर श्रद्धा या प्रतीति नहीं हुई, वे भगवान् की शरण में चले गए । थोड़ा समय बीता । जमाली स्वस्थ हुआ । श्रावस्ती से चला । एक गांव से दूसरे गांव विहार करने लगा । भगवान् उन दिनों चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में विराज रहे थे । जमाली वहां आया । भगवान् के पास बैठकर बोला - 'देवानुप्रिय ! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञदशा में गुरुकुल से अलग होते हैं । वैसे मैं नहीं हुआ हूं। मैं सर्वज्ञ, अर्हत्, जिन केवली होकर आपसे अलग हुआ हूं। जमाली की यह बात सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम स्वामी बोले'जमाली ! सर्वज्ञ का ज्ञान दर्शन शैल-स्तम्भ और स्तूप से रुद्ध नहीं होता । जमाली ! यदि तुम सर्वज्ञ होकर भगवान् से अलग हुए हो तो लोक शाश्वत है या अशाश्वत, जीव शाश्वत है या अशाश्वत - इन दो प्रश्नों का उत्तर दो ।' गौतम के प्रश्न सुन वह शंकित हो गया । उनका यथार्थ उत्तर नहीं दे सका । मौन हो गया । भगवान् बोले - 'जमाली ! मेरे अनेक छद्मस्थ शिष्य भी मेरी भांति इन प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं । किन्तु तुम्हारी भांति अपने आपको सर्वज्ञ कहने में समर्थ नहीं हैं ।'
'जमाली ! यह लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । लोक कभी नहीं था, नहीं है, नहीं होगा - ऐसा नहीं है । किन्तु यह था, है और रहेगा । इसलिए यह शाश्वत है । अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी होती है और उत्सर्पिणी के बाद फिर अवसर्पिणी । इस काल चक्र की दृष्टि से लोक अशाश्वत है । इसी प्रकार जीव भी शाश्वत और अशाश्वत दोनों है । त्रैकालिक सत्ता की दृष्टि से वह शाश्वत है । वह कभी नैरयिक बन जाता है, कभी तिर्यंच, कभी मनुष्य और कभी देव | इस रूपान्तरण की दृष्टि से वह अशाश्वत है ।' जमाली ने भगवान् की बातें सुनीं पर वे अच्छी नहीं लगीं । उन पर श्रद्धा नहीं हुई । वह उठा, भगवान् से अलग चला गया । मिथ्याप्ररूपणा करने लगा -- झूठी बातें कहने लगा । मिथ्या अभिनिवेश से वह आग्रही बन गया । दूसरों को भी आग्रही बनाने का जी भर
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