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साथ ले भगवान् से अलग विहार करने लगा ।
श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में जमाली ठहरा हुआ था । संयम और तप की साधना चल रही थी । निर्ग्रन्थ- शासन की कठोरचर्या और वैराग्यवृत्ति के कारण वह अरस - विरस, अन्त-प्रांत, रूखा-सूखा, • कालातिक्रांत, प्रमाणातिक्रांत आहार लेता । उससे जमाली का शरीर रोगातंक से घिर गया । विपुल वेदना होने लगी । कटु दुःख उदय में आया । पित्तज्वर से शरीर जलने लगा । घोरतम वेदना से पीड़ित जमाली ने अपने साधुओं से कहा- 'देवानुप्रियो ! बिछौना करो ।' साधुओं ने विनयावनत हो उसे स्वीकार किया । बिछौना करने लगे । वेदना का वेग बढ़ रहा था। एक-एक पल भारी हो रहा था । जमाली ने अधीर स्वर से पूछा- 'मेरा बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो ? श्रमणों ने उत्तर दिया- 'देवानुप्रिय ! आपका बिछौना किया नहीं किया जा रहा है ।' दूसरी बार फिर पूछा- देवानुप्रियो ! बिछौना किया या कर रहे हो ?' श्रमण-निर्ग्रथ बोले - 'देवानुप्रिय ! आपका बिछौना किया नहीं, किया जा रहा है ।' इस उत्तर ने वेदना से अधीर बने जमाली को चौंका दिया । शारीरिक वेदना की टक्कर से सैद्धान्तिक धारणा हिल उठी । विचारों ने मोड़ लिया । जमाली सोचने लगा- भगवान् चलमान को चलित, उदीयमाण को उदेरित यावत् निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैं, वह मिथ्या है | यह सामने दीख रहा है । मेरा बिछौना बिछाया जा रहा है, किन्तु बिछा नहीं है । इसलिए क्रियमाण अकृत, संस्तीर्यमान असंस्तृत है— किया जा रहा है किन्तु किया नहीं गया है, बिछाया जा रहा है किन्तु बिछा नहीं है -- का सिद्धांत सही हैं। इसके विपरीत भगवान का 'क्रियमाण कृत' और 'संस्तीर्यमाण संस्तृत' - करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया वह बिछा लिया गया- यह सिद्धांत गलत है । चलमान को चलित, यावत् निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण मानना मिथ्या है । चलमान को अचलित यावत् निर्जीर्यमाण को अनिर्जीर्ण मानना सही है । बहुरतवाद - कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्ण कहना ही यथार्थ है । इस सैद्धान्तिक उथल-पुथल ने जमाली की शरीर - वेदना को निर्वीर्य बना दिया । उसने साधुओं को बुलाया और अपना सारा मानसिक आन्दोलन कह सुनाया । श्रमणों ने आश्चर्य के साथ सूना । जमाली भगवान् के सिद्धान्त को मिथ्या और अपने
जैन परम्परा का इतिहास
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