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जैन परम्परा का इतिहास जाल रचा। बहुतों को झगड़ाखोर बनाया। इस प्रकार की चर्चा चलती रही। लम्बे समय तक श्रमण-वेश में साधना की । अंतकाल में एक पक्ष की संलेखना की। तीस दिन का अनशन किया। किन्तु मिथ्या-प्ररूपणा या झूठे आग्रह की आलोचना नहीं की, प्रायश्चित्त नहीं किया। इसलिए आयु पूरा होने पर वह लान्तक-कल्प [छठे देवलोक ] के नीचे किल्विषिक [निम्न श्रेणी का] देव बना । २. जीव-प्रादेशिकवाद
दूसरे निन्हव का नाम तिष्यगुप्त है। इनके आचार्य 'वस्तु' चतुर्दशपूर्वी थे । वे तिष्यगुप्त को आत्मप्रवादपूर्व पढ़ा रहे थे। उसमें भगवान् महावीर और गौतम का सम्वाद आया
__गौतम-'भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ?'
भगवान्-'नहीं।'
गौतम-भगवन् ! क्या दो, तीन यावत् संख्यात प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ?'
भगवान्—'नहीं। असंख्यात प्रदेशमय चैतन्य पदार्थ को ही जीव कहा जा सकता है।'
___यह सुन तिष्यगुप्त ने कहा-'अंतिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं हैं । इसलिए अंतिम प्रदेश ही जीव है।'
गुरु के समझाने पर भी अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उन्हें संघ ने पृथक् कर दिया । ये जीव-प्रदेश सम्बन्धी आग्रह के कारण जीवप्रादेशिक कहलाए। ३. अव्यक्तवाद
श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ़ चैत्य में आचार्य आषाढ़ विहार कर रहे थे। उनके शिष्यों में योग-साधना का अभ्यास चल रहा था। आचार्य का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उसने सोचाशिष्यों का अभ्यास अधूरा रह जाएगा। वे फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गए। शिष्यों को इसकी जानकारी नहीं थी। योगसाधना का क्रम पूरा हआ। आचार्य देवरूप में प्रकट हो बोलेश्रमणो ! मैंने असंयत होते हुए भी संयतात्माओं से वंदना कराई, इसलिए मुझे क्षमा करना।' सारी घटना सुना देव अपने स्थान
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