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________________ ३८ जैन परम्परा का इतिहास अच्छा नहीं होता; दुश्चीर्ण कर्म का बुरा फल नहीं होता। कल्याण और पाप अफल हैं । पुनर्जन्म नहीं है और मोक्ष नहीं है।' ३. विनयवाद विनयवादी अहं-विसर्जन और समर्पण को सर्वोपरि मूल्य देते थे । उनकी दृष्टि में अहं ही सब दुःखों का मूल था। ४. अज्ञानवाद : अज्ञानवादी दुःखों का मूल ज्ञान को मानते थे। अज्ञानी मनुष्य जितना सुखी होता है उतना ज्ञानी नहीं होता। वे अपने ज्ञान का उपयोग ज्ञान के निरसन में करते थे। भगवान महावीर ने चारों वादों की समीक्षा कर क्रियावाद का सिद्धांत स्वीकार किया। उनका स्वीकार एकांगी दृष्टि से नहीं था इसलिए उनके दर्शन को सापेक्ष-क्रियावाद की संज्ञा दी जा सकती है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यज्ञ, जातिवाद आदि ब्राह्मण सिद्धान्तों का विरोध करने के लिए महावीर ने जैन धर्म का प्रवर्तन किया। किंतु यह गहराई से आलोचित नहीं है। महावीर जिस श्रमण-परम्परा में दीक्षित हुए वह बहुत प्राचीन है । उसका अस्तित्व वेदों की रचना से पूर्ववर्ती है। वेदों में स्थान-स्थान पर विरोधी विचारधारा का उल्लेख मिलता है। उसका सम्बंध श्रमण-परम्परा से ही है। ___ भगवान् महावीर का परिवार तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्व के धर्म का अनुगामी था। इन साक्ष्यों से यह प्रतिध्वनित नहीं होता कि महावीर ने ब्राह्मण सिद्धांतो का विरोध करने के लिए जैन धर्म का प्रवर्तन किया। अहिंसा और मुक्ति----ये श्रमण-संस्कृति के आधार-स्तम्भ हैं। महावीर ने स्वयं द्वारा व्याख्यात अहिंसा की प्राचीन तीर्थंकरों द्वारा व्याख्यात अहिंसा के साथ एकता प्रतिपादित की है। भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं, किंतु उन्नायक थे। उन्होंने प्राचीन परम्पराओं को आगे बढ़ाया, अपने समसामयिक विचारों की परीक्षा की और उनके आलोक में अपने अभिमत जनता को समझाए । उनके विचारों का आलोचनापूर्वक विवेचन सत्रकतांग में मिलता है। वहीं पंचमहाभूतवाद, एकात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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