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________________ भगवान् महावीर निर्वाण भगवान् तीस वर्ष की अवस्था में श्रमण बने, साढे बारह वर्ष तक तपस्वी जीवन बिताया और तीस वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। भगवान् ने काशी, कौशल, पंचाल, कलिंग, कम्बोज, कुरु-जांगल, बाह्नीक, गांधार, सिन्धु-सौवीर आदि देशों में विहार किया। भगवान् के चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियां बनीं । नन्दी सूत्र के अनुसार भगवान के चौदह हजार साधु प्रकीर्णकार थे । इससे जान पड़ता है, सर्व साधुओं की संख्या और अधिक थी। १,५६,००० श्रावक और ३,१८,००० श्राविकाएं थीं। यह व्रती श्रावक-श्राविकाओं की संख्या प्रतीत होती है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालों की संख्या इससे अधिक थी, ऐसा सम्भव है। भगवान के उपदेश का समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ। उनका क्रान्ति-स्वर समाज के जागरण का निमित्त बना । वि० पू० ४७० (ई० पू० ५२७) पावापुर में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान् का निर्वाण हुआ। भगवान महावीर के समकालीन धर्म-सम्प्रदाय भगवान् महावीर का युग धार्मिक मतवादों और कर्मकाण्डों से संकूल था । बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय तिरेसठ श्रमण सम्प्रदाय विद्यमान थे। जैन साहित्य में तीन सौ तिरसेठ धर्ममतवादों का उल्लेख मिलता है । यह भेदोपभेद की विस्तृत चर्चा है। संक्षेप में सारे सम्प्रदाय चार वर्गों में समाते थे । भगवान् ने उन्हें चार समवसरण कहा है । वे हैं : १. क्रियावाद क्रियावादी दार्शनिकों की धर्मनिष्ठा आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मवाद पर टिकी हुई थी। वे सुकृत और दुष्कृत को एक समान नहीं मानते थे । सुचीर्ण कर्म का फल अच्छा होता है और दुश्चीर्ण कर्म का फल बुरा होता है - इस सिद्धान्त में उनकी आस्था थी। २. अक्रियावाद अक्रियावादी दार्शनिकों की नैतिक-निष्ठा वर्तमान की उपयोगिता पर टिकी हुई थी । वे आत्मा को पुनर्जन्मानुयायी तत्त्व नहीं मानते थे, इसलिए उनमें धर्मनिष्ठा नहीं थी। उनका सिद्धान्त था"सूकृत और दुष्कृत के फल में अन्तर नहीं है। सचीर्ण कर्म का फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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