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भगवान महावीर
३६ वाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, षष्ठात्मवाद, नियतिवाद, सष्टिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, यदच्छावाद, प्रकृतिवाद आदि अनेक विचारों की चर्चा और उन पर भगवान का दृष्टिकोण प्राप्त
कोई धर्म पुराना होने से अच्छा होता है और नया होने से अच्छा नहीं होता, इस मान्यता में मुझे सत्य की ध्वनि सुनाई नहीं देती, फिर भी इस सत्य पर आवरण नहीं डाला जा सकता किः श्रमण-परम्परा प्राग्वैदिक है और भारतीय जीवन में आदिकाल से परि-व्याप्त है। श्रमणों की.अनेक धाराएं रही हैं। उनमें सबसे प्राचीन धारा भगवान् ऋषभ की और सबसे अर्वाचीन भगवान् बुद्ध की है। और सब मध्यवर्ती हैं।
वैदिक और पौराणिक दोनों साहित्य-विधाओं में भगवान् ऋषभ श्रमण धर्म के प्रवर्तक के रूप में उल्लिखित हुए हैं । भगवान् ऋषभ का धर्म विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित होता रहा है। आदि में उसका नाम श्रमण-धर्म था। फिर अर्हत धर्म हुआ। भगवान् महावीर के युग में उसे निर्ग्रन्थ धर्म कहा जाता था। बौद्ध साहित्य में भगवान् का उल्लेख 'निग्गंठ नातपुत्ते' के नाम से हुआ। उनके निर्वाण की दूसरी शताब्दी में वह 'जैन धर्म' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भगवान महावीर के अस्तित्व-काल में श्रमणों के चालीस से अधिक सम्प्रदाय थे। उनमें पांच बहत प्रभावशाली थे :
१. निग्रंथ–महावीर का शासन । २. शाक्य-बुद्ध का शासन । ३. आजीवक-मक्खली गोशालक का शासन । ४. गरिक-तापस शासन । ५. परिव्राजक–सांख्य शासन ।
बौद्ध-साहित्य में छह श्रमण-सम्प्रदायों, उनके आचार्यों तथा सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है :१. भक्रियावाद
इस संघ का आचार्य पूरणकश्यप था। उसका कहना था कि "किसी ने कुछ किया या करवाया, काटा या कटवाया, तकलीफ दी या दिलवाई, शोक किया या करवाया, कष्ट सहा या दिया,
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