________________
भगवान् महावीर
६. प्रत्याख्यान-त्याग करना।
इस आवश्यक कार्य से निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि भण्ड-उपकरणों का प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे । उसके पश्चात् हाथ जोड़कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूं? आप मुझे आज्ञा दें-मैं किसी की सेवा में लगू या स्वाध्याय में ? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अग्लान-भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे। दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं-स्वाध्याय और ध्यान। कहा है :
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात स्वाध्यायमामनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-संपत्त्या परमात्मा प्रकाशते।"
--- स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान करे और ध्यान के पश्चात् स्वाध्याय । इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय के क्रम से परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
आगमिक काल-विभाग इस प्रकार रहा है-दिन के पहले पहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षा-चर्या और चौथे में फिर स्वाध्याय ।
__ रात के पहले पहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद ले और चौथे में फिर स्वाध्याय करे।
पूर्व रात में भी आवश्यक-कर्म करे। दिन के पहले पहर में प्रतिलेखन करे, वैसे चौथे पहर में भी करे । यह मुनि की जागरूकतापूर्ण जीवन-चर्या है। श्रावक
धर्म की आराधना में जैन साधु-साध्वियां संघ के अंग हैं, वैसे श्रावक-श्राविकाएं भी हैं। ये चारों मिलकर ही चतुर्विध संघ को पूर्ण बनाते हैं । भगवान् ने श्रावक-श्राविकाओं को साधु-साध्वियों के माता-पिता तुल्य कहा है।
श्रावक की धार्मिक-चर्या यह है : १. सामायिक के अंगों का अनुपालन करना। २. दोनों पक्षों में पौषधोपवास करना।
आवश्यक कर्म जैसे साधु-संघ के लिए हैं, वैसे ही श्रावक-संघ के लिए भी हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org