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जैन परम्परा का इतिहास
दिया। व्यवस्था की दष्टि से श्रमण-संघ को ग्यारह या नौ भागों में विभक्त किया। पहले सात गणधर सात गणों के और आठवें-नौवें तथा दसवें-ग्यारहवें क्रमशः आठवें और नौवें गण के प्रमुख थे।
... गणों की सारणा-वारणा और शिक्षा-दीक्षा के लिए सात पद निश्चित थे और उनका अपना-अपना उत्तरदायित्व था -
१. आचार्य-सूत्र के अर्थ की वाचना देना और गण का संचालन करना।
२. उपाध्याय-सूत्र की वाचना देना, शिक्षा की वृद्धि करना।
३. स्थविर-श्रमणों को संयम में स्थिर करना, श्रामण्य से डिपते हुए श्रमणों को पुनः स्थिर करना, उनकी कठिनाइयों का निवारण करना।
४. प्रवर्तक-आचार्य द्वारा निर्दिष्ट धर्म-प्रवृत्तियों तथा सेवाकार्य में श्रमणों को नियुक्त करना।
५. गणी-श्रमणों के छोटे-छोटे समूहों का नेतृत्व करना। ६. गणधर-साध्वियों के विहार आदि की व्यवस्था करना ।
७. गणावच्छेदक-धर्म-शासन की प्रभावना करना, गण के लिए विहार और उपकरण की खोज तथा व्यवस्था करने के लिए कुछ साधुओं के साथ संघ के आगे-आगे चलना, गण की सारी व्यवस्था की चिंता करना।
इनकी योग्यता के लिए विशेष मापदंड स्थिर किए गए थे। इनका निर्वाचन नहीं होता था। ये आचार्य द्वारा नियुक्त किये जाते थे; किन्तु इसमें स्थविरों की सहमति होती थी। मुनि को दिनचर्या - अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचन व धर्म-जागरिका करना -यह चर्या का पहला अंग है । स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना। आवश्यक - अवश्य करणीय कर्म छह हैं :
१.सामायिक-समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन ।
२. चतुर्विशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति । ३. वन्दना--आचार्य को द्वादशावत-वन्दना । ४. प्रतिक्रमण-कृत दोषों की आलोचना । ५. कायोत्सर्ग-काया का स्थिरीकरण ।
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