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________________ भगवान् महावीर मिल रही है। इस पर से अन्दाज लगता है कि महावीर ने २५०० साल पहले उसे करने में कितना बड़ा पराक्रम किया।' भगवान् ने गृहस्थों को धर्म का उपदेश दिया। उसे स्वीकार करने वाले पुरुष और स्त्रियां, उपासक और उपासिकाएं या श्रावक और श्राविकाएं कहलाए । भगवान् के आनन्द आदि दस प्रमुख श्रावक थे। ये बारह व्रती थे । इनकी जीवनचर्या का वर्णन करने वाला एक अंग-ग्रंथ 'उपासकदशा' है। जयन्ती आदि श्राविकाएं थीं, जिनके प्रौढ़ तत्त्व-ज्ञान की सूचना भगवतीसूत्र से मिलती है। धर्म-आराधना के लिए भगवान् का तीर्थ सचमुच तीर्थ बन गया। भगवान् ने तीर्थ चतुष्टय [साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका] की स्थापना की, इस-- लिए वे तीर्थंकर कहलाए। संघ-व्यवस्था सभी तीर्थंकरों की भाषा में धर्म का मौलिक रूप एक रहा है। धर्म का साध्य मुक्ति है। उसका साधन द्विरूप नहीं हो सकता। उसमें मात्रा-भेद हो सकता है, किन्तु स्वरूप-भेद नहीं हो सकता। धर्म की साधना अकेले में हो सकती है, पर उसका विकास अकेले में नहीं होता । अकेले में उसका प्रयोजन ही नहीं होता, वह समुदाय में होता है। समुदाय मान्यता के बल पर बनते हैं। असमानताओं के उपरान्त भी कोई एक समानता आती है और लोग एक भावना में जुड़ जाते हैं। .. जैन मनीषियों का चिन्तन साधना के पक्ष में जितना वैयक्तिक है, उतना ही साधना-संस्थान के पक्ष में सामुदायिक है। जैन तीर्थकरों ने धर्म को एक ओर वैयक्तिक कहा, दूसरी ओर तीर्थ का प्रवर्तन किया-श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविकाओं के संघ की स्थापना की। धर्म वैयक्तिक तत्त्व है। किन्तु धर्म की आराधना करने वालों का समुदाय बनता है, इसलिए व्यवहार में वह भी सामुदायिक बन जाता है। भगवान् ने श्रमण-संघ की बहुत ही सुदृढ़ व्यवस्था की । अनुशासन की दृष्टि से भगवान् का संघ सर्वोपरि था। पांच महाव्रत और अणुव्रत-ये मूलगुण थे। इनके अतिरिक्त उत्तर गुणों की व्यवस्था की । विनय, अनुशासन और आत्म-विजय पर अधिक बल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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