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जैन परम्परा का इतिहास हिंसा का हेतुभूत आहार जैसे सदोष होता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य में बाधा डालने वाला आहार भी सदोष है । आहार की मीमांसा में अहिंसा-विशुद्धि के बाद ब्रह्मचर्य की विशुद्धि की ओर ध्यान देना सहज प्राप्त होता है । भगवान् आहार-पानी की मात्रा के जानकार थे । रस-गृद्धि से वे किनारा करते रहे। वे जीमनवार में नहीं जाते और दुर्भिक्ष-भोजन भी नहीं लेते। उन्होंने सरस भोजन का संकल्प तक नहीं किया। वे सदा अनाशक्ति और यात्रा-निर्वाह के लिए भोजन करते रहे। भगवान ने अनाशक्ति के लिए शरीर की परिचर्या को भी त्याग रखा था । वे खाज नहीं खनते । आंख को भी साफ नहीं करते। भगवान संग-त्याग की दष्टि से गहस्थ के पात्र में खाना नहीं खाते और न उनके वस्त्र ही पहनते।
भगवान का दृष्टि-संयम अनुत्तर था। वे चलते-चलते इधरउधर नहीं देखते, पीछे नहीं देखते, बुलाने पर नहीं बोलते, सिर्फ मार्ग को देखते हुए चलते।
भगवान् प्रकृति-विजेता थे। वे सर्दी में नंगे बदन घूमते । सर्दी से डरे बिना हाथों को फैला कर चलते । भगवान् अप्रतिबद्ध-विहारी थे, परिव्राजक थे । बीच-बीच में शिल्प-शाला, सूना घर, झोंपड़ी, प्रपा, दूकान, लोहकार-शाला, विश्राम-गृह, श्मशान, वृक्षमूल आदि स्थानों में ठहरते । इस प्रकार भगवान बारह वर्ष और साढ़े छह मास तक कठोर चर्या का पालन करते हुए आत्म-समाधि में लीन रहे। भगवान् साधना-काल में समाहित हो गये । अपने आप में समा गए। भगवान् दिन-रात जागरूक रहते । उनका अन्तःकरण सतत क्रियाशील या आत्मान्वेषी हो गया। भगवान् अप्रमत्त वन गये। वे भय और दोषकारक प्रवृत्तियों से हटकर सतत जागरूक बन गए।
___ ध्यान करने के लिए समाधि [आत्म-लीनता या चित्त स्वास्थ्य], यतना और जागरूकता- ये सहज अपेक्षित हैं। भगवान् ने आत्मिक वातावरण को ध्यान के अनुकल बना लिया। बाहरी वातावरण पर विजय पाना व्यक्ति के सामर्थ्य की बात है, उसे बदलना उसके सामर्थ्य से परे भी हो सकता है । आत्मिक वातावरण बदला जा सकता है । भगवान् ने इस सामर्थ्य का पूरा उपयोग किया। भगवान् ने नींद पर भी विजय पा ली। वे दिन-रात का अधिक भाग खड़े रहकर ध्यान में बिताते । विश्राम के लिए थोड़े.
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