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भगवान् महावीर नृत्य और गीतों से जरा भी नहीं ललचाते। दंड-युद्ध, मुष्टि-युद्ध आदि लड़इयां देखने को भी उत्सुक नहीं होते।
भगवान् स्त्री-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, और राज-कथा में भाग नहीं लेते। उन्हें मध्यस्थ भाव से टाल देते। वे सारे कष्टअनुकूल और प्रतिकूल, जो साधना के पूर्ण विराम हैं, भगवान् को लक्ष्यच्युत नहीं कर सके।
भगवान ने विजातीय तत्त्वों [पुद्गल-आसक्ति] को न शरण दी और न उनकी ली । वे निरपेक्ष भाव से जीते रहे ।
___ भगवान् श्रमण बनने से दो वर्ष पहले ही अपेक्षाओं को ठुकराने लगे । सजीव पानी पीना छोड़ दिया; अपना अकेलापन देखने लग गए; क्रोध, मान, माया और लोभ की ज्वाला को शान्त कर डाला । सम्यक्-दर्शन का रूप निखर उठा। पौद्गलिक आस्थाएं हिल गई। ___भगवान् ने मिट्टो, पानी, अग्नि, वायु वनस्पति और चर जीवों का अस्तित्व जाना । उन्हें सजीव मान वे उनकी हिंसा से विलग हो
गये।
__भगवान् ने संसार के उपादान को ढूंढ निकाला । उसके अनुसार उपाधि-परिग्रह से बन्धे हुए जीव ही कर्म-बद्ध होते हैं। कर्म ही संसार-भ्रमण का हेतू है । वे कर्मों के स्वरूप को जान उनसे अलग हो गये । भगवान् ने स्वयं अहिंसा को जीवन में उतारा। दूसरों को उनका मार्गदर्शन दिया । वासना को सर्व कर्म-प्रवाह का मूल मान भगवान् ने स्त्री-संग छोड़ा।
____ अहिंसा और ब्रह्मचर्य-ये दोनों साधना के आधारभूत तत्त्व हैं। अहिंसा, अवैर साधना है । ब्रह्मचर्य जीवन की पवित्रता है। अवैर भाव के बिना आत्म-साम्य की अनुभूति और पवित्रता के बिना विकास का मार्गदर्शन नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् ने उन पर बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से मनन किया।
भगवान् ने देखा-बंध कर्म से होता है। उन्होंने पाप को ही नहीं, उसके मूल को उखाड़ फेंका।
भगवान् अपने लिए बनाया हुआ भोजन नहीं लेते। वे शुद्ध भिक्षा के द्वारा अपना जीवन चलाते । आहार का विवेक करना अहिंसा और ब्रह्मचर्य- इन दोनों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । जीव
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