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जैन परम्परा का इतिहास
तीस वर्ष की अवस्था में उनका अभिष्क्रिमण हुआ। वे अमरत्व की साधना के लिए निकल गए। 'आज से सब पाप-कर्म अकरणीय हैं'- इस प्रतिज्ञा के साथ वे श्रमण बने ।
शान्ति उनके जीवन का साध्य था। क्रान्ति उसका सहचर परिणाम । उन्होंने बारह वर्ष तक शान्त, मौन और दीर्घ तपस्वी जीवन बिताया। साधना और सिद्धि
___ भगवान् ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद आदि सभी वादों को जाना और फिर अपना मार्ग चुना । वे स्वयं सम्बुद्ध थे । भगवान् निर्ग्रन्थ बनते ही अपनी जन्मभूमि से चल पड़े। हेमन्त ऋतु थी। भवगन् के पास केवल एक देव-दूष्य बस्त्र था। भगवान ने नहीं सोचा कि सर्दी में मैं यह वस्त्र पहनूंगा। वे कष्टसहिष्णु थे। तेरह महीनों तक वह वस्त्र भगवान् के पास रहा। फिर उसे छोड़कर भगवान् पूर्ण अचेल हो गये। वे पूर्ण असंग्रही थे।
भगवान प्रहर-प्रहर तक किसी लक्ष्य पर आंखें टीका ध्यान करते । उस समय गांव के बाल-बच्चे उधर से आ निकलते और भगवान को देखते ही हल्ला मचाते, चिल्लाते। फिर भी वे स्थिर रहते । वे ध्यानलीन थे।
भगवान को प्रतिकल कष्टों की भांति अनुकल कष्ट सहने पड़े। भगवान जब कभी जनाकीर्ण बस्ती में ठहरते, उनके सौन्दर्य से ललना अनेक ललनाएं उनका प्रेम चाहतीं। भगवान उन्हें साधना की बाधा मान परहेज करते। वे स्व-प्रवेशी [आत्म-लीन] थे ।
साधना के लिए एकान्तवास और मौन-ये आवश्यक हैं। जो पहले अपने को न साधे, वह दूसरों के हित नहीं साध सकता। स्वयं अपूर्ण, पूर्णता का मार्ग नहीं दिखा सकता।
भगवान गृहस्थों से मिलना-जुलना छोड़ ध्यान करते, पूछने पर भी नहीं बोलते । कई आदमी भगवान को मारते-पीटते, किन्तु उन्हें भी वे कुछ नहीं कहते । भगवान वैसी कठोरचर्या में रम रहे थे जो सबके लिए सुलभ नहीं है।
भगवान असह्य कष्टों को सहते। कठोरतम कष्टों की वे परवाह नहीं करते । व्यवहार दृष्टि से उनका जीवन नीरस था। वे
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