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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
तीर्थंकर पार्श्व
तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्व ऐतिहासिक पुरुष हैं । उनका तीर्थ - प्रवर्तन भगवान् महावीर से २५० वर्ष पहले हुआ । भगवान् महावीर के समय तक उनकी परम्परा अविच्छिन्न थी । भगवान् महावीर के माता-पिता भगवान् पार्श्व के अनुयायी थे | अहिंसा और सत्य की साधना को समाजव्यापी बनाने का श्र ेय भगवान् पार्श्व को है | भगवान पार्श्व अहिंसक परंपरा के उन्नयन द्वारा बहुत लोकप्रिय हो गये थे। इसकी जानकारी हमें 'पुरिसादाणीय' [ पुरुषादानीय ] विशेषण के द्वारा मिलती है । भगवान महावीर भगवान पार्श्व के लिए इस विशेषण का सम्मानपूर्वक प्रयोग करते थे ।
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ये काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे । इनकी माता का नाम वामादेवी था । ये ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए। वर्षों तक साधना कर केवली बने । तीर्थ की स्थापना कर ऋषभ की शृंखला में तेईसवें तीर्थंकर हुए ।
इनका जन्म ई० पू० ८७७ में हुआ । इन्होंने सौ वर्षों की आयु व्यतीत कर ई० पू० ७७७ में सम्मेदशिखर [ पारसनाथ पहाड़ी ] पर परिनिर्वाण को प्राप्त किया । इनके १७८ वर्ष पश्चात भगवान महावीर का जन्म हुआ । पार्श्व के समय में चातुर्याम धर्म प्रवर्तित था ।
एक बार राजकुमार पार्श्व गंगा के किनारे घूमने निकले। वहां एक तापस पंचाग्नि तप कर रहा था । चारों दिशाओं में अग्नि जल रही थी। ऊपर से सूर्य का प्रचण्ड ताप आ रहा था । पार्श्व वहां आकर रुके । उन्हें जन्म से अवधिज्ञान [ एक प्रकार का अतीन्द्रिय ज्ञान] प्राप्त था । उस दिव्य ज्ञान से उन्होंने लक्कड़ में जल रहे सर्प - युगल को जान लिया । उन्होंने तापस से कहा - 'यह क्या ? जल रहे इस लक्कड़ में सांप का एक जोड़ा है । वह जलकर भस्म हो जाएगा ।' लक्कड़ को बाहर निकाला गया । सांप का जोड़ा अधजला हो चुका था। उसे देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । राजकुमार पार्श्व ने उसे नमस्कार मंत्र सुनाया । वह सर्प युगल मर कर देव-रूप में उत्पन्न हुआ | धरणेन्द्र - पद्मावती के नाम से वह युगल पार्श्वनाथ का परम
उपासक बना ।
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धर्मानन्द कौसम्बी ने भगवान पार्श्व के बारे में कुछ मान्यताएं प्रस्तुत की हैं :
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