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जैन परम्परा का इतिहास
छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंगिरस ऋषि थे । जैन आगमों के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु बाइसवें तीर्थंङ्कर अरिष्टनेमि थे । घोर आंगिरस
कृष्ण को जो आत्मवादी धारणा का उपदेश दिया है, वह जैन परम्परा से भिन्न नहीं है । 'तू अक्षत अक्षय है, अच्युत - अविनाशी है और प्राण-संशित -- अतिसूक्ष्मप्राण है।' इस त्रयी को सुनकर श्रीकृष्ण अन्य विद्याओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये । जैन दर्शन आत्मवाद की भित्ति पर अवस्थित है । घोर आंगिरस ने जो उपदेश दिया उसका सम्बंध आत्मवादी धारणा से है । 'इसिभासिय' में आंगिरस नामक प्रत्येक युद्ध का उल्लेख है । वे भगवान् अरिष्टनेमि के शासनकाल में हुए थे । इस आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि घोर आंगिरस या तो अरिष्टनेमि के शिष्य या उनके विचारों से प्रभावित कोई संन्यासी रहे होंगे ।
कृष्ण और अरिष्टनेमि का पारिवारिक संबंध भी था । अरिष्टनेमिसमुद्रविजय के और कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे । समुद्रविजय और वसुदेव सगे भाई थे । कृष्ण ने अरिष्टनेमि के विवाह के लिए प्रयत्न किया। अरिष्टनेमि की दीक्षा के समय वे उपस्थित थे । राजीमती को भी दीक्षा के समय में उन्होंने भावुक शब्दों में -आशीर्वाद दिया ।
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कृष्ण के प्रिय अनुज गजसुकुमाल ने अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली।
कृष्ण की आठ पत्नियां अरिष्टनेमि के पास प्रव्रजित हुईं। कृष्ण के पुत्र और अनेक पारिवारिक लोग अरिष्टनेमि के शिष्य | जैन साहित्य में अरिष्टनेमि और कृष्ण के वार्तालापों, प्रश्नोत्तरों और विविध चर्चाओं के अनेक उल्लेख मिलते हैं ।
वेदों में कृष्ण के देवरूप की चर्चा नहीं है । छान्दोग्य उपनिषद् में भी कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन नहीं है । पौराणिक काल में कृष्ण का रूप परिवर्तन होता है । वे सर्वशक्तिमान देव बन जाते हैं । कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन जैन आगमों में मिलता है । -अरिष्टनेमि और उनकी वाणी से वे प्रभावित थे, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
उस समय सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना का आलोक समूचे भारत को आलोकित कर रहा था ।
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