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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
स्वयं आनन्द बन गए। भरत का अनासक्त योग
__ भरत अब असहाय जैसा हो गया। भाई जैसा शब्द उसके लिए अर्थवान् न रहा । वह सम्राट् बना रहा किन्तु उसका हृदय अब साम्राज्यवादी नहीं रहा । पदार्थ मिलते रहे पर आसक्ति नहीं रही। वह उदासीन भाव से राज्य-संचालन करने लगा।
भगवान् अयोध्या आये । प्रवचन हुआ। एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा । 'भरत मोक्ष-गामी है।' एक सदस्य भगवान् पर बिगड़ गया और उन पर पुत्र के पक्षपात का आरोप लगाया। भरत ने उसे फांसी की सजा सुना दी । वह घबरा गया। भरत के पैरो में गिर पड़ा और अपराध के लिए क्षमा मांगी। भरत ने कहा-'तेल भरा कटोरा लिए सारे नगर में घूम आओ । तेल की एक बूंद नीचे न डालो तो तुम छूट सकते हो। दूसरा कोई विकल्प नहीं है।'
अभियुक्त ने वैसा ही किया। वह बड़ी सावधानी से नगर में घम आया और सम्राट के सामने प्रस्तुत हुआ।
सम्राट ने पूछा-'नगर मे घूम आये ?' 'जी, हां।' अभियुक्त ने सफलता के भाव से कहा। सम्राट्-'नगर में कुछ देखा तुमने ?' अभियुक्त–'नहीं, सम्राट् ! कुछ भी नहीं देखा।' 'सम्राट्–'कई नाटक देखे होंगे ?' अभियुक्त-'जी नहीं ! मोत के सिवा कुछ भी नहीं देखा।' सम्राट् -'कुछ गीत तो सुने होंगे ?'
अभियुक्त–'सम्राट् की साक्षी से कहता हूं, मौत की गुनगुनाहट के सिवा कुछ नहीं सुना।'
सम्राट-'मौत का इतना डर ?'
अभियुक्त--'सम्राट् इसे क्या जाने । यह मृत्युदण्ड पाने वाला ही समझ सकता है।
सम्राट ---- 'क्या सम्राट् अमर रहेगा? कभी नहीं। मौत के मुंह से कोई नहीं बच सकता । तुम एक जीवन की मौत से डर गये। न तुमने नाटक देखे और न गीत सुने । मैं मौत की लम्बी परम्परा से परिचित हूं। यह साम्राज्य मुझे नहीं लुभा सकता।'
सम्राट् की करुणापूर्ण आंखों ने अभियुक्त को अभय बना
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