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जैन परम्परा का इतिहास
महान् ही क्षमा कर सकता है । क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता । महान् पिता के महान् पुत्र! हमें क्षमा कीजिए, हमारे सम्राट को क्षमा कीजिए।' इन लाखों कण्ठों की विनम्र स्वरलहरियों ने बाहुबलि के शौर्य को मार्गान्तरित कर दिया। बाहुबलि ने अपने आप को सम्हाला । महान् पिता की स्मृति ने वेग का शमन किया। उठा हुआ हाथ विफल नहीं लौटता। उसका प्रहार भरत पर नहीं हुआ। वह अपने सिर पर लगा। सिर के बाल नोच डाले और अपने पिता के पथ की ओर चल पड़ा।
बाहबलि के पैर आगे नहीं बढ़े। वे पिता की शरण में चले गए पर उनके पास नहीं गए । अहंकार अब भी बच रहा था। पूर्वदीक्षित छोटे भाइयों को नमस्कार करने की बात आते ही उनके पैर रुक गये । वे एक वर्ष तक ध्यान-मुद्रा में खड़े रहे। विजय और पराजय की रेखाएं अनगिनत होती हैं। असंतोष पर विजय पाने वाले बाहुबलि अहं से पराजित हो गए। उनका त्याग और क्षमा उन्हें आत्म-दर्शन की ओर ले गए। उनके अहं ने उन्हें पीछे ढकेल दिया। बहुत लम्बी ध्यान-मुद्रा के उपरान्त भी आगे नहीं बढ़ सके ।
'ये पैर रुक क्यों रहे हैं ? सरिता का प्रवाह रुक क्यों रहा हैं ?' ये शब्द बाहुबलि के कानों को बींध हृदय को पार कर गये। बाहुबलि ने आंखें खोलीं। देखा, ब्राह्मी और सुन्दरी सामने खड़ी हैं। बहनों की विनम्र-मुद्रा को देख उनकी आंखें झुक गईं। _ 'अवस्था से छोटे-बड़े की मान्यता एक व्यवहार है। वह सार्वभौम सत्य नहीं है। ये मेरे पैर गणित के छोटे-से प्रश्न में उलझ गए। छोटे भाइयों को नमस्कार कैसे करूं-इस तुच्छ चिन्तन में मेरा महान् साध्य विलीन हो गया। अवस्था लौकिक मानदण्ड है। लोकोत्तर जगत् में छुटपन और बड़प्पन के मानदण्ड बदल जाते हैं। वे भाई मुझसे छोटे नहीं हैं, उनका चरित्र विशाल है। मेरे अहं ने मुझे छोटा बना दिया। अब मुझे अविलम्ब भगवान् के पास चलना चाहिये।
पैर उठे कि बन्धन टूट पड़े। नम्रता के उत्कर्ष में समता का प्रवाह बह चला । वे केवली बन गये । सत्य का साक्षात् ही नहीं हुआ, वे स्वयं सत्य बन गये। शिव अब उनका आराध्य नहीं रहा, वे स्वयं शिव बन गए । आनन्द अब उनके लिए प्राप्य नहीं रहा, वे
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