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भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक अब उस उन्माद के रोग का शिकार मैं हूं। हिंसा से हिंसा की आग नहीं बुझती-यह मैं जानता हूं। आक्रमण को अभिशाप मानता हूं। किन्तु आक्रमणकारी को सहूं-यह मेरी तितिक्षा' से परे है । तितिक्षा मनुष्य के उदात्त चरित्र की विशेषता है। किन्तु उसकी भी एक सीमा है । मैंने उसे निभाया है । तोड़ने वाला समझता ही नहीं तो आखिर जोड़ने वाला कब तक जोड़े ?
___ भरत की विशाल सेना 'बहली' की सीमा पर पहुंच गई। इधर बाह बलि अपनी छोटी-सी सेना सजा आक्रमण को विफल करने आ गया। भाई-भाई के बीच युद्ध छिड गया। स्वाभिमान और स्वदेश-रक्षा की भावना से भरी हई बाहबलि की छोटी-सी सेना ने सम्राट् की विशाल सेना को भागने से लिए विवश कर दिया । सम्राट की सेना ने फिर पूरी तैयारी के साथ आक्रमण किया। दुबारा भी मंह की खानी पड़ी। लम्बे समय तक आक्रमण और बचाव की लड़ाइयां होती रहीं। आखिर दोनों भाई सामने आ खड़े हए। तादात्म्य आंखों पर छा गया। संकोच के घेरे में दोनों ने अपने आपको छिपना चाहा, किन्तु दोनों विवश थे। एक के सामने साम्राज्य के सम्मान का प्रश्न था, दूसरे के सामने स्वाभिमान का। वे विनय और वात्सल्य की मर्यादा को जानते हुए भी रणभूमि में उतर आए। दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध आदि पांच प्रकार के युद्ध निर्णीत हुए। उन सब में सम्राट पराजित हुआ। विजय हुआ बाहुबलि । भरत को छोटे भाई से पराजित होना बहुत चुभा। वह आवेग को रोक न सका । मर्यादा को तोड़ बाहुबलि पर चक्र का प्रयोग कर डाला। इस अप्रत्याशित घटना से बाहुबलि का खून उबल गया। प्रेम का स्रोत एक साथ ही सूख गया। बचाव की भावना से विहीन हाथ उठा तो सारे सन्न रह गए। भूमि और आकाश बाहुबलि की विरुदावलियों से गूंज उठे । भरत अपने अविचारित प्रयोग से लज्जित हो सिर झुकाए खड़ा रहा। सारे लोग भरत की भूल को भुला देने की प्रार्थना में लग गये।
एक साथ लाखों कण्ठों से एक ही स्वर गूंजा-'महान् पिता के पुत्र भी महान् होते हैं । सम्राट ने अनुचित किया पर छोटे भाई के हाथ से बड़े भाई की हत्या और अधिक अनुचित कार्य होगा। १. सहनशक्ति
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