SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा का इतिहास पूर्वक अपना-अपना राज्य सम्भालने को कहा। किन्तु वे अब राज्यलोभी सम्राट भरत के भाई नहीं रहे थे । वे अकिंचन जगत् के भाई बन चुके थे। भरत का भ्रातृ-प्रेम अब उन्हें नहीं ललचा सका । वे उसकी लालची आंखों को देख चके थे। इसलिए उसकी गीली आंखों का उन पर कोई असर नहीं हुआ। भरत हाथ मलते हुए घर लौट गया। साम्राज्यवाद एक मानसिक प्यास है। वह उभरने के बाद सहसा नहीं बुझती। भरत ने एक-एक कर सारे राज्यों को अपने अधीन कर लिया। बाहुबलि को उसने नहीं छुआ। अट्ठानवे भाइयों के राज-त्याग को वह अब भी नहीं भूला था । अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा। एक छत्र राज्य का सपना पूरा नहीं हुआ । असंयम का जगत् ही ऐसा है, जहां सब कुछ पाने पर भी व्यक्ति को अकिंचनता की अनुभूति होती रहती है। युद्ध का पहला चरण दूत के मुंह से भरत का संदेश सुन बाहुबलि की भृकुटि तन गई । दबा हुआ रोष उभर आया । कांपते होठों से कहा-'दूत ! भरत अब भी भूखा है ? अपने अदानवे सगे भाइयों का राज्य हड़पकर भी तृप्त नहीं बना ? हाय ! यह कैसी मनोदशा है ? साम्राज्यवादी के लिए निषेध जैसा कुछ होता ही नहीं। मेरा बाहुबल किससे कम है ? क्या मैं दूसरे राज्यों को नहीं हड़प सकता ? किन्तु यह मानवता का अपमान, शक्ति का दुरुपयोग और व्यवस्था का भंग है, मैं ऐसा कार्य नहीं कर सकता । व्यवस्था के प्रवर्तक हमारे पिता हैं। उनके पुत्रों को उसे तोड़ने में लज्जा का अनुभव होना चाहिये । शक्ति का प्राधान्य पशु-जगत का चिह्न है। मानव-जगत् में विवेक का प्राधान्य होना चाहिए । शक्ति का सिद्धांत पनपा तो बच्चों और बूढ़ों का क्या बनेगा ? युवक उन्हें चट कर जायेंगे । रोगी, दुर्बल और अपंग के लिए यहां कोई स्थान नहीं रहेगा। फिर तो यह सारा विश्व रौद्र बन जाएगा। क्रूरता के साथी हैं- ज्वाला-स्फलिंग, ताप और सर्वनाश । क्या मेरा भाई अभी-अभी समूचे जगत् को सर्वनाश की ओर धकेलना चाहता है ? आक्रमण एक उन्माद है । आक्रांता उससे बेभान हो दूसरों पर टूट पड़ता है।' 'भरत ने ऐसा ही किया । मैं उसे चुप्पी साधे देखता रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy