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________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक लिए भी और पराजित के लिए भी। पराजित अपनी सत्ता को गंवाकर पछताता है और विजेता कुछ नहीं पाकर पछताता है। प्रतिशोध की चिता जलाने वाला उसमें स्वयं न जले, यह कभी नहीं होता। 'राज्य रूपी पक्षी का दूसरा पैर दुर्बल है । वह है कायरता। मैं तुम्हें कायर बनने की सलाह भी कैसे दे सकता हूं? पुत्रो ! मैं तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूं जिसके साथ लड़ाई और कायरता की कड़ियां जुड़ी हुई नहीं हैं।' भगवान् की आश्वासन-भरी वाणी सुन वे सारे खशी से झूम उठे। आशा-भरी दृष्टि से एकटक भगवान की ओर देखने लगे। भगवान् की भावना को वे नहीं पकड़ सके। भौतिक जगत् की सत्ता और अधिकारों से परे कोई राज्य हो सकता है-यह उनकी कल्पना में नहीं समाया। उनकी किसी विचित्र भू-खंड को पाने की लालसा तीव्र हो उठी। भगवान् इसलिए तो भगवान् थे कि उनके पास कुछ भी नहीं था। उत्सर्ग की चरम रेखा पर पहुंचने वाले ही भगवान् बनते हैं । संग्रह के चरम बिन्दु पर पहुंच कोई भगवान् बना होऐसा एक भी उदाहरण नहीं है। भगवान् ने कहा- 'संयम का क्षेत्र निर्बाध राज्य है। इसे लो। न तुम्हें कोई अधीन करने आएगा और न वहां युद्ध और कायरता का प्रसंग होगा।' पुत्रों ने देखा, पिता उन्हें राज्य त्यागने की सलाह दे रहे हैं। पूर्व-कल्पना पर पटाक्षेप हो गया। अकल्पित चित्र सामने आया। आखिर वे भी भगवान के बेटे थे । भगवान के मार्गदर्शन का सम्मान किया। राज्य को त्याग स्व-राज्य की ओर चल पड़े। स्व-राज्य की अपनी विशेषताएं हैं। इसे पाने वाला सब कुछ पा जाता है। राज्य की मोहकता तब तक रहती है, जब तक व्यक्ति स्व-राज्य की सीमा में नहीं चला आता। एक संयम के बिना व्यक्ति सब कुछ पाना चाहता है । संयम के पाने पर कुछ भी पाए बिना सब कुछ पाने की कामना नष्ट हो जाती है।। त्याग शक्तिशाली अस्त्र है। इसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। भरत का आक्रामक दिल पसीज गया। वह दौड़ा-दौड़ा आया। अपनी भूल पर पछतावा हुआ। भाइयों से क्षमा मांगी । स्वतंत्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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