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जैन परम्परा का इतिहास दिया। मृत्यु-दण्ड उसके लिए केवल शिक्षाप्रद था। सम्राट की अमरत्व-निष्ठा ने उसे मौत से सदा के लिए उबार लिया। श्रामण्य की ओर
सम्राट भरत नहाने को थे । स्नानघर में गये, अंगूठी खोली। अंगली की शोभा घट गई। फिर उसे पहना, शोभा बढ़ गई। 'पर पदार्थ से शोभा बढ़ती है, यह सौन्दर्य कृत्रिम है'- इस चिन्तन में लगे और लगे सहज सौन्दर्य ढूंढने । भावना का प्रवाह आगे बढ़ा। कर्ममल को धो डाला । क्षणों में ही मुनि बने, न वेश बदला, न राजप्रासाद से बाहर निकले, किन्तु इनका आन्तरिक संयम इनसे बाहर निकल गया और वे पिता के पथ पर चल पड़े। ऋषभ के पश्चात्
काल को चौथा चरण दुःषम-सुषणा आया। वह बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटि-कोटि सागर तक रहा। इस अवधि में कर्मक्षेत्र का पूर्ण विकास हुआ। धर्म बहुत फूला-फला। इस युग में जैनधर्म के बीस तीर्थङ्कर हुए । यह सारा दर्शन प्रागैतिहासिक युग का है। इतिहास अनन्त अतीत की चरण-धूलि को भी नहीं छू सका है । वह पांच हजार वर्ष को भी कल्पना को आंख से देख पाता है सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना
बौद्ध साहित्य का जन्म-काल महात्मा बुद्ध के पहले का नहीं है । जैन साहित्य का विशाल भाग भगवान् महावीर से पूर्व का नहीं है । पर थोड़ा भाग भगवान् पार्श्व की परम्परा का भी उसमें मिश्रित है, यह बहुत सम्भव है । भगवान् अरिष्टनेमि की परम्परा का साहित्य उपलब्ध नहीं है।
__वेदों का अस्तित्व पांच हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है। उपलब्ध साहित्य श्री कृष्ण के युग का उत्तरवर्ती है। इस साहित्यिक उपलब्धि द्वारा कृष्ण-युग तक का एक रेखा-चित्र खींचा जा सकता है । उससे पूर्व की स्थिति सुदूर अतीत में चली जाती है।
सोरियपुर नगर में अन्धक कुल के नेता समुद्रविजय राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र थे-- अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थङ्कर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक-बुद्ध । . अरिष्टनेमि का जीव जब शिवारानी के गर्भ में आया तब
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