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________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग वैसे उन्होंने धर्म को सरलता की दिशा में ले जाने का प्रयत्न किया। फलतः आचार-धर्म या संयम-धर्म का स्थान उपासना-धर्म ने ले लिया। यह सरल होने के कारण जनसाधारण को अपनी ओर अधिक आकृष्ट कर सका। भगवान की भक्ति, नाम का जप और पूजा करने में पारलौकिक जीवन को उत्कर्ष का आश्वासन है और आचार-शुद्धि, व्यवहार-शुद्धि तथा इन्द्रिय-संयम के लिए किया जाने वाला तीव्र अध्यवसाय और पुरुषार्थ भी अपेक्षित नहीं है। धर्म की इस धारणा ने धार्मिक की संख्या में बाढ़ ला दी, किन्तु धर्म-चेतना को सीमित कर दिया। आज यह प्रश्न पूछा जाता है कि इतने धर्मों के होने पर भी मनुष्य इतना अशांत क्यों ? इतना क्र र क्यों ? इतना अनैतिक क्यों ? उपासना-प्रधान धर्म के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है । संयम-प्रधान धर्म इन प्रश्नों का उत्तर दे सकता था, किन्तु वह वर्तमान में धर्म के सिंहासन पर आसीन नहीं है। आचार्य हेमचंद्र ने धर्म की इसी स्थिति पर चिंतन किया और उन्होने अनुभव की भाषा में लिखा --'वीतराग! तुम्हारी पूजा करने की अपेक्षा तुम्हारे आदेशों का पालन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे आदेशों का पालन करने वाला सत्य को प्राप्त होता है और उनका पालन नहीं करने वाला भटक जाता है।' प्रश्न उपस्थित हुआ, वीतराग का आदेश क्या है ? आचार्य ने उत्तर दिया-उनका आदेश है, संवर-मन का संवरण, वाणी का संवरण, काया का संवरण और श्वास का संवरण । धर्म की इस धारा के विकास से धार्मिकों की संख्या सीमित हो सकती है किन्तु धर्म-चेतना को व्यापक होने की स्फति मिलेगी। यह रूपान्तर धर्म को अध्यात्म के कल्पवृक्ष से विच्छिन्न नहीं होने देगा और उसके सामने प्रस्तुत प्रश्नों का सक्रिय समाधान दे सकेगा। धर्म का सूत्र आत्मा से आत्मा को देखो-- यह धर्म का सूत्र है। राजनीति का सूत्र इससे भिन्न होता है। उसका सूत्र है- दूसरों को देखो। जो आत्मा को देखता है, आत्मा की आवाज सुनता है और आत्मा की वाणी बोलता है, वह धार्मिक होता है। इसीलिए उमास्वाति ने धार्मिक को दूसरों की दृष्टि से अन्ध, बधिर और मूक कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने इस चिन्तन को मार्मिक ढंग से विकसित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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