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________________ १४४ जैन परम्परा का इतिहास होता है उसका चित्त निर्मल, वृत्तियां शांत, इन्द्रियां प्रशान्त, और व्यवहार पवित्र होता है। उसके मन में स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय जागृत ही नहीं होता है । पुण्यवादी धारा के प्रवाह में यह व्याख्या अगम्य हो रही थी तब उमास्वाति ने एक नया चितन प्रस्तुत किया--'स्वर्ग के सूख परोक्ष हैं, अतः उनके बारे में तुम्हें विचिकित्सा हो सकती है। मोक्ष का सुख उनसे भी अधिक परोक्ष है । अतः उसके विषय में भी तुम संदिग्ध हो सकते हो। किन्तु धर्म से प्राप्त होने वाला शांति का सुख प्रत्यक्ष है । इसे प्राप्त करने में तुम स्वतंत्र हो। यह अर्थ-व्यय से प्राप्त नहीं होता किन्तु आत्मानुभूति में प्रवेश करने से प्राप्त होता है।' 'तुम कहते हो, मरने के बाद मोक्ष मिलता है किन्तु यह सच नहीं है। जो वर्तमान क्षण में नहीं मिलता, वह मरने के बाद कैसे मिलेगा? यदि तुम्हें वर्तमान क्षण में मोक्ष की अनुभूति नहीं तो मरने के बाद भी मोक्ष नहीं मिल सकता। इसी जीवन में और इसी क्षण में मोक्ष हो सकता है, यह बहत ही आश्चर्यकारी बात है। लोगों की धारणा के सर्वथा विपरीत है। किन्तु आचार्य ने बताया- 'जो व्यक्ति जाति, कल, बल, रूप, ऐश्वर्य और ज्ञान के मद को निरस्त कर देता है, कामवासना पर विजय पा लेता है, कायिक, बाचिक और मानसिक विकृतियों से शून्य हो जाता है और आकांक्षा से मुक्ति पा लेता है, उसे इसी जन्म में और इसी क्षण में मोक्ष प्राप्त हो जाता है।' सामाजिक जीवन में अनैतिकता का प्रवेश आर्थिक प्रलोभन के कारण होता है। हर मनुष्य जानता है कि जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु के बाद क्या होगा- यह प्रश्न भी हर आदमी के सामने उभरता है । कुछ लोग पुनर्जन्म को अस्वीकार करते हैं, किन्तु बहुत लोग उसे स्वीकार करते हैं। उसे स्वीकार करने वाले भावी जीवन को वर्तमान जीवन से उत्कृष्ट चाहते हैं । उसके लिए वे धर्म की शरण में आते हैं । धर्म का मौलिक रूप हैइन्द्रिय का संयम, मन का संयम, समता का अभ्यास, विशुद्ध आचरण और अजित संस्कारों को क्षीण करने के लिए ज्ञानपूर्ण तप । यह मार्ग दुर्गम प्रतीत होता है। जनता को सरल मार्ग चाहिए। धर्म के प्रवक्ताओं में जैसे-जैसे लोकैषणा का भाव प्रबल हआ, वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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