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________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग १४१ विकसित किया वैसे ही हरिभद्रसूरि ने समाधि-योग का बीज विकसित किया। महर्षि पतंजलि के योगदर्शन की प्रसिद्धि के बाद प्रत्येक दर्शन की साधना-पद्धति योग के नाम से प्रसिद्ध हो गई । जैन धर्म की साधना-पद्धति का नाम मोक्षमार्ग था। हरिभद्रसरि ने मोक्षमार्ग को योग के रूप में प्रस्तुत किया। इस विषय में योगविशिका, योगदृष्टिसमुच्चय, योग बिन्दु, योगशतक उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। उन्होंने योग की परिभाषा की - 'धर्म की समग्र प्रवृत्ति, मोक्ष के साथ योग कराती है, इसलिए वह योग है।' इसमें महर्षि पतंजलि को 'योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः', गीता की 'समत्वं योग उच्यते', 'योगः कर्मसु कौशलम्' इन सब परिभाषाओं की समन्विति है। हरिभद्रसूरि महान् ताकिक-प्रतिभा-संपन्न थे। फिर भी उनका मत यह था कि प्रेक्षावान् मनुष्यों को तत्त्वसिद्धि के लिए अध्यात्म-योग का ही सह रा लेना चाहिए। वाद-ग्रन्थ उनके लिए पर्याप्त नहीं है। आत्मा का अनुभव उन व्यक्तियों को होता है जो ध्यान की गहराई में उतरते हैं । ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं । साधारण जन अनुगमन करता है। अनुगमन करने वालों में न अपना अनुभव होता है और न किसी सत्य का साक्षात्कार । इसलिए वे अपनी अनुभूति से नहीं चलते। वे दूसरों की अनुभूति को मानकर चलते हैं। धर्म के क्षेत्र में ऐसे लोगों की बहुलता होती है तब अध्यात्म की ज्योति वाद-विवाद की राख से ढक जाती है। जैन आचार्यों ने समन्वय की धारा को प्रवाहित कर अध्यात्म की ज्योति को प्रज्वलित रखने का महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया है। अनेकान्त की दृष्टि और स्याद्वाद की भाषा उन्हें प्राप्त थी। उन्होंने उसका उपयोग कर जनता को बताया कि अध्यात्म सबका एक है। यह दिखाई देनेवाला भेद निरूपण का है। जितने निरूपण के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं। नय सापेक्ष होते हैं। आप एक नय को दूसरे नय से निरपेक्ष कर देखते हैं तब दोनो नयो में विरोध प्रतिभासित होता है। दो नयों को समन्वित कर देखते हैं तब वे दोनो एक-दूसरे के पूरक रूप में दिखाई देते हैं, वस्तु-जगत् में कोई असंगति नहीं है । यह असंगति एकांगी दृष्टिकोण में उत्पन्न होती है। आचार्य अकलंक ने चैतन्य और अचैतन्य का समन्वय किया। उनके मतानुसार इनमें असामं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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