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________________ १४२ जैन परम्परा का इतिहास जस्य नहीं है । ये दोनो धर्म एक साथ रहते हैं । ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से आत्मा चेतन है। प्रमेयत्व आदि धर्मों की दृष्टि से वह अचेतन भी है । आत्मा केवल चैतन्य धर्म की दृष्टि से ही चेतन है। वह एकधर्मा नहीं है, किन्तु अनन्त-धर्मा है । शेष धर्म अचेतन हैं। इसलिए वह चेतनाचेतनात्मक है। सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, हरिभद्रसूरि, देवनंदी, हेमचंद्र, यशोविजयजी आदि मनीषियों ने सब दर्शनों का समन्वय कर अध्यात्म का निर्विवाद दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने जैन-शास्त्रों में चर्चित विषयों को सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों से तुलना की और उनमें चर्चित विषयों की जैन दर्शन से तुलना की। आचार्य सिद्धसेन ने दर्शनों का अनेकान्त दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद यह मत प्रकट किया कि जिन दर्शनों को मिथ्या माना जा रहा है, वे एकांगी दष्टि से देखने पर मिथ्या हैं। सापेक्ष दष्टि से देखा जाए तो मिथ्या प्रतिभासित होने वाले सारे दर्शन समन्वित होकर एक सम्यक् दर्शन का निर्माण कर देते हैं। जैन दर्शन सापेक्षवादी दर्शन है। इस आधार पर उन्होंने एक परिभाषा निर्मित की - मिथ्यादर्शनों का समूह ही जैन दर्शन है। इस युक्ति को सामने रखकर कछ आधनिक विद्वानों ने यह धारणा प्रसारित की है कि जैन दर्शन का मौलिक देय कुछ भी नहीं है । उसने दूसरे दर्शनों से उधार लेकर अपने दर्शन को प्रतिष्ठित किया है। यह सच है कि जैन आचार्यों ने दूसरे दर्शनों के उपयोगी तत्त्वों को स्वीकार किया है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि उसका कोई मौलिक आधार नहीं है। पड़ोसी दर्शन एक-दूसरे के विचारों को ग्रहण करते ही हैं । जैन आचार्यों ने अनेकान्तवादी होने के कारण दूसरे दर्शनों के दृष्टिकोण को मुक्तभाव से अपनाया। इससे उनके दर्शन की आधारहीनता प्रकट नहीं होती, उनकी समन्वय-भावना ही प्रकट होती है । हरिभद्रसूरि ने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में परस्पर-विरोधी प्रतिभासित होने वाले दार्शनिक तत्त्वों का अद्भत समन्वय किया है। उनका वह ग्रन्थ समन्वय-ग्रन्थों में अद्वितीय है। उनका निश्चित सिद्धान्त था कि अध्यात्मचेता विद्वान् के लिए कोई भी सिद्धांत अपना या पराया नहीं होता। जो सिद्धांत प्रत्यक्ष और अनुमान से अबाधित होता है, वही उसका अपना सिद्धान्त होता है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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