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जैन संस्कृति
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बहुत प्रसन्न हुए और वे सदा-सदा के लिए आचार्य हेमचंद्र के अनुयायी बन गए।
आचार्य हेमचन्द्र कलिकालसर्वज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐसे तो कलिकाल में सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती, किंतु आचार्य हेमचन्द्र की सूक्ष्ममेधा, बहुआयामी बुद्धि और विविध विधाओं की साहित्यरचना ने इन्हें सर्वज्ञ तुल्य बना डाला। कहा जाता है कि साहित्य की एक भी विधा ऐसी नहीं है, जिसमें आचार्य हेमचन्द्र ने साहित्य न रचा हो। इनके कुछेक प्रमुख ग्रन्थ ये हैं-अभिधानचिन्तामणिकोष, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, संस्कृतद्वयाश्रय महाकाव्य, प्राकृत द्वयाश्रय महाकाव्य, योगशास्त्र, प्रमाणमीमांसा, काव्यानुशासन आदि ।
सिद्धराज के बाद कुमारपाल ने पाटण का राज्यभार संभाला। वह भी आचार्य हेमचंद्र का अनन्य भक्त बना रहा।
माना जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र सरस्वती के वरदपुत्र थे। एक साथ ८४ कलमें चलती थीं। इन्होंने लगभग साढ़े तीन करोड़ पद्य-प्रमाण साहित्य रचा और सरस्वती के भण्डार को भरा।
ये तिरेसठ वर्ष की अवस्था तक संयम पालन करते रहे। इनका स्वर्गवास चौरासी वर्ष की आयु में विक्रम सम्वत् १२२६ में पाटण में हुआ।
दिगम्बर परम्परा १. आचार्य कुन्दकुन्द
प्राचीन उल्लेखों के अनुसार इनका जन्मस्थान दक्षिण भारत का हेमग्राम है। इसकी वर्तमान पहचान तमिलनाडु में स्थित ‘पोन्नूर' गांव से की जाती है । उसे ही 'कोण्डपुर' कहा जाता था। इनके पिता का नाम करमण्डू और माता का नाम श्रीमती था। इनके पांच नाम थे :
१. पद्मनन्दि-दीक्षा के समय का नाम । २. कुन्दकुन्द-गांव के आधार पर प्रचलित नाम । ३. वक्रग्रीव-गर्दन कुछ टेढ़ी होने के कारण प्रचलित नाम । ४. एलक। ५. गद्धपिच्छ-विदेह क्षेत्र से लौटते समय रास्ते में मयूर
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