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________________ १२० जैन परम्परा का इतिहास कारण पूछा। आचार्य शय्यंभव ने सारी बात बताते हुए कहा"मुनि मनक मेरा संसारपक्षीय पुत्र था। यदि मैं यह तथ्य पहले ही बता देता तो उसकी आराधना में कमी रह जाती। आचार्य-पूत्र मानकर सब उसकी सेवा-सुश्रूषा करते और तब उसकी निर्जरा में कमी आ जाती।' आचार्य शय्यंभव श्रुतकेवली थे। वे अठाईस वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और उनचालीसवें वर्ष में आचार्य बने। बासठ वर्ष की अवस्था में [वीर निर्वाण ९८ में] उनका स्वर्गवास हो गया। २. आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) इनका जन्म वीर-निर्वाण १४ में हुआ। पैंतालीस वर्ष की अवस्था में ये दीक्षित हुए और आचार्य संभूतिविजय के पश्चात् बासठ वर्ष की अवस्था में ये आचार्य बने । ये आचार्य यशोभद्र के शिष्य थे। इन्हें अन्तिम श्रुतकेवली [चतुर्दश पूर्वी ] माना जाता है । . ये मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के समकालीन थे । एक बार ये नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना करने के लिए चले गए। यह ध्यान बहुत विशिष्ट होता है। इसका कालमान बारह वर्ष का माना जाता है। आचार्य भद्रबाह ध्यान में लीन थे। उस समय भयंकर दुष्काल पड़ा। अनेक श्रुतधर आचार्य और मुनि काल-कवलित हो गए। चौदह पूर्वो का ज्ञाता कोई नहीं बचा। तब पाटलिपुत्र [पटना] में संघ एकत्रित हुआ और आगम-निधि को सुरक्षित रखने का उपाय सोचा। संघ के निर्णय के अनुसार उस समय के अतिमेधावी मुनि स्थूलभद्र अपने पन्द्रह सौ मुनियों के साथ नेपाल की ओर चल पड़े। उनमें पांच सौ मुनि विद्यार्थी थे और हजार मुनि उनके सहयोगी। संघ के अनुरोध पर आचार्य भद्रबाहु ने पूर्वो का ज्ञान देना स्वीकार किया। ज्ञान की गहनता और दुरूहता के कारण मुनिजनों की धृति दुर्बल हो गई। एक-एक कर सभी मुनि निराश हो गए। उनका उत्साह टूट गया। केवल मुनि स्थूलभद्र धृतिपूर्वक पढ़ते रहे। उन्होंने दस पूर्व अर्थ सहित ग्रहण कर लिए । आगे का अध्ययन चालू था। एक बार उनकी बहिने दर्शनार्थ आईं। मुनि स्थूलभद्र के मन में कुतूहल पैदा हुआ और वे अपनी गुफा में सिंह का रूप बना कर बैठ गए । बहिनें गुफा के द्वार तक आई और सिंह को देख, डरकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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