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जैन संस्कृति
१२१ भाग गईं। उन्होंने आचार्य भद्रबाहु से कहा --'गुफा में मुनि स्थूलभद्र नहीं हैं। वहां तो सिंह बैठा है।' यह सुनकर आचार्य भद्रबाहु ने सोचा-'ज्ञान को पचा पाना दुष्कर है।' उन्होंने स्थूलभद्र को आगे पढ़ाना बंद कर दिया। बहुत अनुनय-विनय करने पर आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को आगे के चार पूर्व पढ़ाये, किंतु उनका अर्थ नहीं बताया । मुनि स्थूलभद्र चौदह पूर्वी तो बने, किंतु अन्तिम चार पूर्वो का अर्थ उन्हें नहीं मिला।
श्रवणबेलगोल में प्राप्त शिलालेखों के आधार पर इस बात का पता चलता है कि आचार्य भद्रबाहु बारह हजार जैन श्रमणों का संघ लेकर उत्तरापथ से दक्षिणापथ को गए थे। उनके साथ मौर्य-सम्राट चंद्रगुप्त भी था। आचार्य भद्रबाहु अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचने से पूर्व ही चंद्रगिरि पर्वत पर समाधिपूर्ण मरण प्राप्त कर स्वर्गवास हो गए। हर्मन जेकोबो के अनुसार यह देशाटन ई० पू० २६८ से पहले हुआ था। इस प्रकार वीर-निर्वाण १७० से लगभग भद्रबाहु का स्वर्गगमन हुआ। ३. सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन का समय विक्रम की चौथी-पांचवी शताब्दी है। इनकी जन्म-स्थली विशाला नगरी थी। इनके पिता का नाम देवर्षि 'था। ये कात्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे।
सिद्धसेन प्रकांड तार्किक थे। इनकी प्रतिज्ञा थी कि यदि कोई इन्हें शास्त्र-चर्चा में पराजित कर देगा, तो ये उनके शिष्य बन जायेंगे। एक बार ये जंगल से गुजर रहे थे। महान् ताकिक आचार्य वृद्धवादी भी उधर से पाद-विहार कर आ रहे थे। दोनों ने शास्त्रार्थ के लिए एक दूसरे को ललकारा। वहीं शास्त्र चर्चा प्रारंभ हो गई। ग्वाले मध्यस्थ बनाये गए। सिद्धसेन घंटों तक संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह बोलते गये। ग्वाले मूक थे। उन्हें एक अक्षर भी समझ में नहीं आया। आचार्य वृद्धवादी परिषद् और मध्यस्थों को ध्यान में रखकर सहज-सरल भाषा में बोले । ग्वालों ने आचार्य को विजयी "घोषित कर दिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सिद्धसेन आचार्य वृद्धवादी के शिष्य हो गए। उनका नाम कुमुदचंद्र रखा। ये मेधावी तो थे ही, आचार्य वृद्धवादी का संपर्क पा उनकी बुद्धि और तीव्र हो गई। आचार्य वृद्धवादी उनको आचार्य पद पर आरूढ़ कर स्वयं संघ
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