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जैन संस्कृति
देखना चाहिए ।
लिपि - कला
अक्षर - विन्यास भी एक सुकुमार कला है । जैन साधुओं ने इसे बहुत ही विकसित किया । वे सौन्दर्य और सूक्ष्मता - दोनों दृष्टियों से इसे उन्नति के शिखर तक ले गए ।
पन्द्रह सौ वर्ष पहले लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ और वह अब तक विकास पाता रहा है । लेखन कला में यतियों का कौशल विशेष रूप से प्रस्फुटित हुआ है ।
तेरापंथ के साधुओं ने भी इस कला में चमत्कार प्रदर्शित किया है । सूक्ष्म लिपि में ये अग्रणी हैं । कई मुनियों ने ग्यारह इंच लम्बे और पांच इंच चौड़े पन्ने में लगभग अस्सी हजार अक्षर लिखे हैं । ऐसे पत्र आज तक अपूर्व माने जाते रहे हैं ।
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मूर्तिकला और स्थापत्य कला
कालक्रम से जैन-परम्परा में प्रतिमा-पूजन का कार्य प्रारम्भ हुआ । सिद्धान्त की दृष्टि से इसमें दो धाराएं हैं । कुछ जैन संप्रदाय मूर्ति-पूजा करते हैं और कुछ नहीं करते । किन्तु कला की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण विषय है ।
वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन-मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है । यह मूर्ति मौर्यकाल की मानी जाती है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है । इसकी चमकदार पॉलिश अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन-मूर्तियां मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्त - कालीन हैं । श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी । वास्तव में मथुरा में जैन - मूर्तिकला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है । श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यतः जैन- सम्प्रदाय की है ।
ausfift और उदयगिरि में ई० पू० १८८-३० तक की शुंगकालीन मूर्ति - शिल्प के अद्भुत चातुर्य के दर्शन होते हैं । वहां पर इस काल की कटी हुई सौ के लगभग जैन गुफाएं हैं, जिनमें मूर्तिशिल्प भी हैं । दक्षिण भारत के अलगामले नामक स्थान में खुदाई में जैन - मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं, उनका समय ई० पू० ३००-२०० के
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