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जैन परम्परा का इतिहास करनेवाला समाज बनता है, तब कला भी उसके सहारे पल्लवित होती है।
जैन-परंपरा में कला शब्द बहुत ही व्यापक-अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में पुरुषों के लिए बहत्तर और स्त्रियों के लिए चौसठ कलाओं का निरूपण किया। टोकाकारों ने कला का अर्थ वस्तु-परिज्ञान किया है। इसमें लेख गणित, चित्र, नत्य, गायन, युद्ध, काव्य, वेशभूषा, स्थापत्य, पाक, मनोरंजन आदि अनेक परिज्ञानों का समावेश किया गया है।
धर्म भी एक कला है । यह जीवन की सबसे बड़ी कला है। जीवन के सारस्य को अनुभूति करनेवाले तपस्वियों ने कहा है -- 'जो व्यक्ति सब कलाओं में प्रवर धर्मकला को नहीं जानता, वह बहत्तर कलाओं में कुशल होते हुए भी अकुशल है।' जैन-धर्म का आत्मपक्ष धर्म-कला के उन्नयन में ही संलग्न रहा। बहिरंग-पक्ष सामाजिक होता है । समाज-विचार के साथ-साथ ललित कला का भी विस्तार हुआ। चित्रकला
जैन-चित्रकला का श्री गणेश तत्त्व-प्रकाशन से होता है। गुरु अपने शिष्यों को विश्व व्यवस्था के तत्त्व स्थापना के द्वारा समझाते हैं। स्थापना तदाकार और अतदाकार दोनों प्रकार की होती है। तदाकार स्थापना के दो प्रयोजन हैं-तत्त्व-प्रकाशन और स्मृति । तत्त्व-प्रकाशन-हेतुक स्थापना के आधार पर चित्रकला और स्मृतिहेतुक स्थापना के आधार पर मूर्तिकला का विकास हुआ। ताड़पत्र और पत्तों पर ग्रंथ लिखे गए और उनमें चित्र किये गए। विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी में हजारों ऐसी प्रतियां लिखी गईं जो कलात्मक चित्राकृतियों के कारण अमूल्य हैं।
ताड़पत्रीय या पत्रीय प्रतियों के पट्ठों, चातुर्मासिक प्रार्थनाओं, कल्याण-मन्दिर, भक्तामर आदि स्तोत्रों के चित्रों को देखे बिना मध्यकालीन चित्रकला का इतिहास अधूरा ही रहता है ।
... योगी मारा गिरिगुहा [रामगढ़ की पहाड़ी, सरगूजा] और सितन्नवासल [पदुकोटै राज्य] के भित्ति चित्र अत्यन्त प्राचीन और
चित्रकला की विशेष जानकारी के लिए जैन चित्रकल्पद्रुम
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