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जैन संस्कृति
व्यक्ति हैं। इनका समय हमें उस काल में ले जाता है जब ब्राह्मणग्रंथों का निर्माण हो रहा था। जिसे पलायनवाद कहा गया उससे उपनिषद्-साहित्य मुक्त नहीं रहा।
परिग्रह के लिए सामाजिक प्राणी कामनाएं करते हैं। जैन उपासकों का कामना-सूत्र है :
१. कब मैं अल्प-मूल्य एवं बहु-मूल्य परिग्रह का प्रत्याख्यान करूंगा।
२. कब मैं मुण्ड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा।
३. कब मैं अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना यानी अन्तिम अनशन में शरीर को झोंसकर - जुटाकर और भूमि पर गिरी हुई वृक्ष की डाली की तरह अडोल रखकर मृत्यु की अभिलाषा न करता हुआ विचरूंगा।
जैनाचार्य धार्मिक विचार में बहुत ही उदार रहे हैं। उन्होंने अपने अनुयायियों को केवल धार्मिक नेतृत्व दिया। उन्हें परिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था में कभी नहीं बांधा। समाज-व्यवस्था को समाजशास्त्रियों के लिए सुरक्षित छोड़ दिया। धार्मिक विचारों के एकत्व की दष्टि से जैन-समाज है किंतु सामाजिक बन्धनों की दष्टि से जैन-समाज का कोई अस्तित्व नहीं है । जैनों की संख्या करोड़ों से लाखों में हो गई, उसका कारण यह हो सकता है और इस सिद्धांतवादिता के कारण वह धर्म के विशुद्ध रूप की रक्षा भी कर सका है।
जैन-संस्कृति का रूप सदा व्यापक रहा है। उसका द्वार सबके लिए खुला रहा है। उस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असांप्रदायिकता
और जातीयता का अभाव है। व्यवहार-दष्टि में जैनों के सम्प्रदाय हैं। पर उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ नहीं बांधा। वे जैनसम्प्रदायों को नहीं, जैनत्व को महत्त्व देते हैं। जैनत्व का अर्थ हैसम्यक्-दर्शन, सम्यक्-चारित्र की आराधना । इनकी आराधना करने वाला अन्य सम्प्रदाय के वेश में भी मुक्त हो जाता है, गृहस्थ के वेश में भी मुक्त हो जाता है। कला
कला विशुद्ध सामाजिक तत्त्व है। उसका धर्म या दर्शन से कोई संबंध नहीं है । पर धर्म जब शासन बनता है, उसका अनुगमन
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