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________________ ९७ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि अप्रसन्न न रहे।' वह नही बोले । मैं अपना हाथ उनके पैरों मे टिकाए हुए वंदना की मुद्रा में बैठा रहा। फिर भी वे नहीं बोले । लगभग दो घंटे बीत गए। प्रहर रात आ गई । सोने का समय हो गया। वे पूज्य कालगणीजी के पास चले गए। और मैं मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी के पास सोने के लिए चला गया। मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी मुनिवर के बड़े भाई थे। हमारी रहन-सहन की सभी व्यवस्था वे ही करते थे। हम दो व्यक्तियों के कठोर अनुशासन मे चल रहे थे। मुनिश्री चम्पालालजी का अनुशासन भी बड़ा कठोर था। वे हम लोगो पर काफी कड़ा नियंत्रण रखते ओर थोड़ी-सी भूल होने पर बहुत अप्रसन्न हो जाते। उन्हें प्रसन्न करना भी कोई सरल काम नहीं था । गाय दूध देती है तो उसकी चोट भी सह ली जाती है। हमें निरंतर दूध मिलने का अनुभव हो रहा था इसलिए हम उनकी अप्रसन्नता भी सह लेते और उन्हें प्रसन्न करने में हमें अधिक प्रसन्नता का अनुभव होता । अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति कितना पकता है और कैसे पकता है, इसका हमें अच्छा अनुभव है । और हमारे अनुभव से दूसरे विद्यार्थी भी काफी लाभान्वित हो सकते है । अनुशासन की सबसे पहली शर्त है—तादात्म्य । उसके बिना अनुशासन करने वाला और उसे सहने वाला—दोनों ही सफल नहीं हो सकते। अनुशासन को मैं बहुत व्यापक अर्थ में स्वीकार करता हूं। वह केवल निषेधात्मक नहीं है । अवांछनीय आचरण और व्यवहार से रोकना ही अनुशासन नहीं है । वह उसका छोटा सा पक्ष है । अनुशासन का व्यापक स्वरुप है—विवेकशक्ति का विकास और नियंत्रण-शक्ति का विकास। विवेक और नियंत्रण की शक्ति का विकास होने पर व्यक्ति का जीवन स्वयं शासित हो जाता है। फिर उसके लिए दूसरे का शासन जरुरी नहीं है। अनुशासन कंठा पैदा करने की प्रक्रिया नहीं है । वह प्रकिया है आत्मानुशासन को जगाने की । हम कभी-कभार कुंठा पैदा करने वाले अनुशासन की सीमा में भी रहे, पर अधिकांशतः हम आत्मानुशासन जगाने वाले अनुशासन में ही पले । इसलिए अच्छाइयों को पकड़ने में हमारी अन्तश्चेतना सदा गतिशील रही। पूज्य कालगणी का मुझ पर बहत अनुग्रह था। वे मेरे हितों का बहुत ध्यान रखते थे। लाडनूं कीमा है। भयंकर सर्दी का मौसम । हम लोग शौचाथ जंगल में जाते थे । मैं प्रायः पूज्य गुरुदेव के साथ ही जाता था। एक दिन दूसरी दिशा मे चला गया। पूज्य गुरुदेव ने स्थान पर आते ही पूछा--नत्थू कहां है ? संतो ने कहा--वह मुनि तुलसी के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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