________________
९६
मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि कर लिया। मुनिश्री तुलसी ने आचार्य हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण कंठस्थ करना शुरु किया। पूज्य गुरुदेव ने मुझे कहा—मै अपने विद्या-गुरु के साथ कैसे चल पाऊंगा? पर मुनिवर ने यही चाहा और प्राकृत व्याकरण को कंठस्थ करने में उन्होंने मुझे अपना साथी बना लिया।
मैंने जोधपुर में आंखों की चिकित्सा कराई । कुछ लाभ हुआ। पर पर्याप्त लाभ नहीं हुआ। दोनों की चुभन और पानी गिरना-ये चलते रहे । मुनिवर ने अनेक उपाय किए। वे केवल अध्ययन ही नहीं, जीवन की सारी व्यवस्था को संभाले हुए थे। आंख का प्रश्न है। हम लोग 'खेरवा' में थे। आंखों की चुभन के कारण नींद नही आ रही थी। मन उद्वेलित हो उठा। मन में संकल्प और विकल्प का जाल-सा बिछ गया। सोचा, आंखों की यही स्थिति रही तो जीवन व्यर्थ ही चला जाएगा। मैं अध्ययन नहीं कर पाऊंगा और न ही विकास कर पाऊंगा। पूज्य गुरुदेव के साथ भी कैसे रह सकूँगा? क्या मुझे मुनिवर से भी अलग रहना पड़ेगा? लम्बे समय तक ये संकल्प मुझे सताते रहे । फिर अचानक आस्था का स्वर जागा। रात के चार बजे होंगे। मन में अकल्पित शक्ति उतर आयी। मन ही मन मैंने कहा-मैं बिलकुल ठीक हो जाऊंगा। मेरी आंखों की बीमारी ठीक हो जाएगी और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंच पाऊंगा। दिन में मैंने सारी बात मुनिवर को बताई। उन्होंने उपचार की ओर अधिक ध्यान दिया। अनेक औषधियों का प्रयोग किया, पर लाभ नहीं हुआ। उदयपुर में दानों को मिश्री से घिसना शुरू किया। उससे कुछ लाभ हुआ और बीमारी की भयंकरता समाप्त हो गई । मैं अनुभव करता हूं कि मेरे विद्या-गुरु ने मुझे अन्तश्चक्षु का ही दान नहीं दिया, चर्म चक्षुओं का भी दान दिया। __ मुनि छत्रमलजी व्याखयान की सामग्री का संकलन करते थे। मेरे मन में भी यह भावना जागी । मैंने भी उसके संकलन का निर्णय किया। मुनिवर को पता चला। उन्होंने मनाही कर दी। मुझे ठेस लगी । उस समय उसकी जरुरत नही थी, पर विद्यार्थियों मे होड़ चलती थी। कोई एक विद्यार्थी साधु व्याख्यान की सामग्री संकलित करे तो दूसरा कैसे नहीं करे ? मैने फिर आग्रह किया। मुनिवर अप्रसन्न हो गए। मैं इस विषय में बहुत जागरुक रहता कि वे अप्रसन्न न हो । पर कभी-कभार वे अप्रसन्न हो जाते तो उन्हें प्रसन्न किए बिना मुझे चैन नहीं मिलता। एक बार सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् मैं उन्हें वन्दना करने गया। मैंने विन्रम स्वर में कहा—'मुझसे कोई भूल हुई हो तो मुझे बताएं । मुझे क्षमा करें। आप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org